गुरुवार, १८ जुलै, २०१९

गुरूपौर्णिमा उत्सव


परसो आषाढ पौर्णिमाका दिन था | इसे व्यास पौर्णिमा तथा गुरू पौर्णिमा भी कहा जाता है | अपने देशके सभी प्रांतमे गुरूपौर्णिमा उत्सव मनाया गया |  विख्यात महाकवी कालीदासजीने कहा है कि,  उत्सव प्रियः खलू मनुष्यः|  उत्सव प्रिय होना यह मानवकी स्वाभाविक प्रवृत्ती  है | दुनियाके सभी देशोंमे अपने अपने संस्कृती, तथा धार्मिक श्रद्धाके नुसार उत्सव मनाये जाते है और स्वाभाविकतः उत्सवमें भिन्नता रहती है | लेकीन ऐसी भिन्नता होनेके बावजूद दुनियामे एक उत्सव ऐसा है जिसका तत्व सभी देशोमें समान है और वह हैं , गुरू-शिष्य परंपरा | इसिलीए साॅक्रेटीस-प्लेटो, प्लेटो-ऑरिस्टेटल, मार्क- लेलिन, इब्सेन-शाॅ, वसिष्ठ-श्रीराम, सांदिपनी- श्रीकृष्ण, याज्ञवल्क्य-जनक, जनक-शुक्रचार्य, रामकृष्णपरमहंस -विवेकानंद, रामानंद-कबीर, समर्थ रामदास-शिवाजी ऐसे महान गुरू-शिष्योंकी दुगल दुनियाके इतिहासमें मौजूद है | हमारे लिए गौरवकी बात यह है की,  'यह गुरू-शिष्य परंपरा ' का जनकत्व हिंदू संस्कृतीके पास है | ब्रिटीश कालमे अपने देशमे व्हाॅईसराय रहे लार्ड कर्झनने एक समारोहमें कहा है " जब इंगलीश लोग जंगलमें रहते थे तब भारतमे गुरूकूलके रूपमे शिक्षा व्यवस्था थी | डाॅ ॲनी बेंझट ने कहा है की,  दुनियाके सभी देशोंने हिंदू संस्कृतीको जननी समझे तो दुनियामें सहिष्णूता और भाईचारका माहोल रह सकता है | दुनियाके मशहूर इतिहास तज्ञ विल ड्युरांट कहते है की, '' मनकी विशुध्दता, परिपक्वता, और व्यापकता इन तीनों मुल्योंका संगम बनाकर सहिष्णूताका पालन कैसा करना है, यह सिर्फ भारत देश और उसकी  प्राचीन संस्कृतीसे सिखनेको मिलता है|  हिंदू संस्कृती दुनियाकी सबसे प्राचीन है यह सत्य अन्य पाश्चीमात्य तथा पौर्वात्य विचारवंतोंने मान्य किया है |
 
अब हम गुरू-शिष्य परंपराको उत्सवका स्वरूप कब आया इसपर चर्चा करेंगे | इसका उत्तर एक सवालमे छुपा हुआ है और वह सवाल है, " आषाढी पौर्णिमाको व्यास पौर्णिमा क्यो कहलाया जाता है ?" वैदिक कालमें हमारे यहाॅ गुरूकूल थे | हिंदू संस्कृतीका ज्ञान भांडार यह गुरू-शिष्य संवादोंसेही मिला है | अनेक ऋषीमुनीयोंने अपनी तपस्यासे सृष्टीमें छिपे हुये शाश्वत सिद्धांतोकी खोज कियी है, और मानव जातीको, ऋचा, स्मृती, श्रुती, आरण्यकें जैसे माध्यमोंसे ( वैदिक कालकी मिडीया) सुसंस्कृत बनाया | महर्षी व्यासने सभी ऋषियोंने रचाया हुआ ज्ञान भांडारका संकलन करके संस्कृतिका एक ज्ञानकोष दिया उसिका नाम है महाभारत | भगवान श्रीकृष्ण    गीताके विभूती योगमे कहते  है, ' मुनीनामप्यहम व्यासः |'  व्यक्तीका मोक्ष और समाजका उद्धार इन दोनों आदर्शपर व्यासमूनीने अभेद दृष्टीसे 
देखा | अभ्युदय और निःश्रेयस इन दोनोंका समन्वय करके विविध ग्रंथ रचना कियी है | मानवी जीवन ना सिर्फ प्रकाशका है, ना सिर्फ अंधकारका है | वह साया और प्रकाशका आँख-मिचौलीका एक खेल है | जो सृजन होती है वह सृष्टी है, और इस सृष्टीको सृजन करनेका दायित्व मानवजातीपर है | इस सिद्धांतका जनकत्व व्यासमूनीके  पास जाता है | इसिलीए उनको मानवी जीवनका अलौकीक भाष्यकार माना गया है | महर्षी व्यासमूनीका अध्यात्मिक और व्यावहारीक ज्ञान इतना प्रभावशाली रहा की ' व्यासोच्छिष्टम जगत ' ऐसी एक उक्ती प्रचलित हुई | मानव जन्म का प्रयोजन तथा सार्थकता किसमे है,  इसका जबाब व्यासमूनीने सिर्फ दो वचनोमें बताया दिया है | दो वचन ऐसे है-
          ' परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम् | ' 

व्यासमूनीके पश्चात उनके शिष्यगणोंने सोचा की अपने गुरूके कार्यको जिंदा रखना चाहीये | तब संस्कृतीका प्रसार तथा रक्षण करनेका कोई भी अच्छा उपक्रम हो तो उसे ' व्यास ' ऐसी संज्ञा दि गयी और जिस मंचसे ऐसा कार्य होगा उस मंचको ' व्यासपीठ ' ऐसी संज्ञा दी गयी | उसी दिनसे ही महर्षी व्यासमूनीके शिष्यगणोंने अपने गुरूकी पुजा छुरू की और  कुछ धन और वस्तू समर्पित किये | तभीसे इस पौर्णिमाको व्यास पौर्णिमा और गुरूपौर्णिमा का नाम प्राप्त हुआ | धीरे धीरे  भारत देशके हर कोनेमे गुरू पौर्णिमा  एक पवित्र उत्सव मनाया जा रहा, वह आजतक छूरू है |

मानव जातीका विकास गुरू-शिष्य परंपरासे ही हुआ है, इसमे कोई दुसरी राय नही है | पहले जनरेशनसे सिखते, सिखते अपना विकास करके जीवनको उन्नत करना, यह मानवकी सहज प्रवृत्ती है | पशु-पंछी तथा और प्राणी-जीवमे गुरू-शिष्य परंपरा नही है, क्योंकी उनका जीवन सिर्फ सामूहीक है, पर मानवका जीवन सामाजिक है | आज ज्ञान-विज्ञानका इतना विस्तार हुआ है, की हर क्षेत्रमें गुरूकी जरूरत पडती है, इसिलीए गुरूपूजन उत्सवका भी विस्तार हुआ दिखता है | बदलते युगमे नई सुविधा एक असुविधाको ही साथमे लेके आती है,  यह अपना अनुभव है | इसिलीए समाज व्यवस्थामे जीवनमूल्योंकी रक्षा करनेकी लिए एक समातंर व्यवस्था बनायी गयी है, उसीका नाम है गुरू-शिष्य परंपरा है | गुरूके प्रती कृतज्ञता व्यक्त करना, यह एक कर्मकांड न हो, इसिलीए समर्पित भावको जगानेके लिए समर्पणको इस गुरूपूजनको जोड दिया है | इसिलीए  गुरू-शिष्य परंपराका स्थान मानवी जीवनमे  सबसे उँचा रहा है | गुरू सिर्फ व्यक्ती हो ऐसा नियम नही है | चराचर सृष्टीमे ईश्वर विराजमान है, इसिलीए सृष्टीमे समाये हुये चल-अचल वस्तुयोंसे भी प्रेरणा मिलती है और उनको  गुरू मानना यह भी एक स्वाभाविक प्रवृत्ती समझा जाता  है | वैसा देखा जाय तो हमारे संस्कृतीमें जो प्रतिकें है, जैसे की कलश, श्रीफळ, कमल, स्वस्तिक दीप, भगवा ध्वज, इनसे भी हमें प्रेरणा मिलती है | निसर्गको ही गुरू माननेकी हमारी संस्कृती है | नदी, वृक्ष-वेली, धरती, सागर, वायु आसमान, सूर्य, आदि पंचमहाभूतें, यह भी मानवके गुरू है | हिंदू समाजके आद्यगुरू श्री दत्तात्रेयस्वामीने निसर्गसेही चोवीस गुरूके चरण छुयें और खुद गुरूस्थानपर विराजमान हुये है | भगवान बुद्ध, भगवान वर्धमान महावीर, गुरू नानक, इन्होनें ही सृष्टीसे ही ज्ञान प्राप्त प्राप्त किया है | आज अपने देशमे अध्यात्मिक गुरूके मठ याँ आश्रममें संस्कारक्षम प्रार्थना होती है, प्रवचन होते है , प्रबोधनके अन्य कार्यक्रमका समय समय पर आयोजन होता है | इससे समाजमे आयी हुई सुस्ती मिटायी जाती है | दत्त सांप्रदाय हो याँ शाक्त सांप्रदाय हो, शीख हो याँ शिव- वैष्णव हो,  जैन हो याँ  बुद्ध हो ,  इन सभी समाजके घटक अपने अपने गुरू-शिष्य परंपराके माध्यमोंसे आजही अन्नदान, रूग्ण शुषुश्रा, दवायें, शिक्षा, रक्तदान, नेत्रदान, वृक्षारोपण, ऐसे अन्य सेवा प्रकल्प चलाते है | परोपकारका  सिधा और साधा अर्थ यह है, कि समाजके कोई भी बांधवको आपत्तीमे मदद करना है | दान और सेवा यह दो सर्वश्रेष्ठ जीवनमूल्यें है |

सेवा परमो धर्मः यह ब्रीदकी दिक्षा लेनेकी क्षमता कब बढती  है ? सामान्यतः कोई भी आदमी अगर उसपर जन्मतः अच्छे संस्कार नही हुये हो तो सहज सरलतासे अच्छा बनने लिए आगे आता नही, आदमीको अच्छा बनाना पडता है | क्योंकी त्यागकी प्रवृत्ती उपभोगता इतनी स्वाभाविक याँ प्राकृतिक नही होती है | इस बारेंमे अधिक स्पष्ट रूपसे जानना है तो गायत्री उपासक वेदमूर्ती स कृ देवधर  इनका " गायत्री मंत्र आणि उपासना " यह किताबको पढना जरूरी है | देवधरजी अपने किताबमे कहते है, की " मन शरीरमे है, लेकीन कोई शस्त्रवैद्य (सर्जन) शरीरका हर भागको फाडके देखे तो भी मन नामकी चीज शरीरमे मिलती नही है | इतना सुक्ष्म इस मनको मानवी जीव जब अर्भकावस्थामें रहता तभीसे उसपर संस्कार हो तो मन सक्षम और संस्कारशील बनता है | " इसका अर्थ यही है की मनुष्यकी शिक्षा, पढाई गर्भवास्थामे छुरू होती है | गुरूकी आवश्यकता जन्मसे पहलेही छुरू होती है और यह आवश्यकता जिंदगीके अंतिम यात्रतक रहती है | स्वामी विवेकानंद कहते है, " यदी कोई इंसान यह कह दे की,  बस हो गया ;अभी जिंदगीमे कुछ सिखनेकी जरूरत नही है |तब समझ लो की वह इंसान बुढा हो गया |" इससे यह स्पष्ट होता है की स्वामीजी हमें जिदंगीके अंतिम श्वासतक सिखते रहनेकी सलाह देते है और उसके लिए हमें गुरूके सानिध्यमे रहना ही है | वह स्वयं रामकृष्ण परमंहसके शिष्य रहे है | हमारे शास्त्रकार कहते है की गुरूके सानिध्यमें हमारा आचरणमे सुधार आता है | " आचारः प्रभवो धर्मः | " इसी तरह " आचारः प्रथमो धर्मः | " यह भी स्पष्ट रूपसे कहा है | जिसे अंतिम ध्येयसिद्धी तक पहूँचना है, उसे पहला आचरण सुधारना होगा |  साधा अर्थ है, मनको अच्छी आदतसे जोडना है | उसके लिए मनको लगाम लगानेके लिए बुद्धी का उपयोग करना है और वह काम गुरूके सहवाससे होगा | अपने आचरणको सही दिशा देनेका काम गुरू अपनेसे कराके लेता है | उसे  गुरू-शिष्य परंपरामे दिक्षा ऐसा नाम है | बादमे धीरे धीरे मनमें संयम बढता है,  संयमसे सद्भभाव निर्माण होता है और सद्वभावसे अंदरका समर्पित भाव ऊँचाईके तरफ जानेकी प्रक्रीया छुरू होती है | उसी पथपर अंतमे ' सेवाः परमो धर्म " इस ब्रीदकी अनुभूती होकर फलासक्ती बिना सामाजिक समरसताका कार्य युहीं अपने हातसे होते है | 

भगवान रामकृष्ण परमंहस अपने शिष्यगणोंके साथ बातो-बातोंमे कहते है की हमे कमल फूल जैसे खिलना चाहीये | शिष्यगण पुछते है कमलके जैसे खिलना कैसा शक्य हो जाता है ? तब परमंहसजी कहते है, " कमल रातदिन खिचडमे संघर्ष करता है | सुरजके तरफ देखके खिलनेका प्रयत्न करता है | उसकी साधना अंखड छुरू रहती है | उसमे वह खुदके खिलना भी भूल जाता है | वह फलको भूल जाता है | ठंडी, गर्मी, बारीस, खिचड इसमे रहकर संघर्ष जारी रखता है और एक दिन सुबह सुरजका प्रकाश उसे स्पर्श करता है , पवन उसे झुलाता है, वृक्षवेलीपर बैठे पंछी अपना सुर लगाते है, इसमे कमल खूद खिला है यह भी भूल जाता है | मैं खिला हूँ, मैं सुगंधसे भरा हूँ, मै आकर्षक बना हूँ, मुझमें मधूर मकरंद भरा हुआ है, यह सब भूल जाता है और अकस्मात एक भूंगा गुं गुं करके कमलके आसपास प्रदक्षिणा डालकर अंदर घुसता है, और भूंगा कमलको कहता है,  " व्वा, कमल, तेरी कमाल है, तु पवित्र है, क्या तेरा रूप है, क्या तेरा रंग, क्या सुगंध है, कितना मधूर रस है !" '  शिष्य भी कैसा हो, कमल जैसा ! निष्काम कर्मयोगी हो ! कमल जैसा ! धौम्य ऋषीके आरूणी नामके शिष्य जैसा !

मित्र हो, अपना देश वाल्मीकी, कृष्णद्वैपायन व्यास , शुक, गोतम बुद्ध, वर्धमान महावीर,  गुरूनानक,  शंकराचार्य जैसी महान गुरूओंका है, उसी तरह  नचिकेता, आरूणी, एकलव्य, अर्जून, कौत्स, विवेकानंद जैसे शिष्योंत्तमका है | शिष्योंने अच्छा शिष्य बननेका प्रयास करें और गुरूजनोंने महान गुरूवर्योंकी  वसीहतको अच्छी तरह निभानेका प्रयत्न करें, तो धिरे, धिरे, अपना देश विश्वगुरूके स्थानपर विराजमान होगा | इस विश्वासके साथ गुरू पौर्णिमा पर चली हुई इस चर्चाको मै यहाँ विराम देता हूँ |

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