भारत एक प्राचीन देश है | हमारी संस्कृती भी सबसे प्राचीन है | दुनियाके मशहूर इतिहास तज्ञ विली ड्युरांट कहते है, " मनकी विशुध्दता, परिपक्वता और व्यापकता सिखनेका है तो, दुनियामें सिर्फ एक ही देश है, और वह है भारत ! " लार्ड कर्झन, डाॅ ॲनी बेंझट और अनेक पश्चीमी तथा पौर्वात्य नेता और विचारवंतोने भारतकी गुरूकुल व्यवस्था तथा संस्कृतीका गौरव किया है | भारतकी एक असामान्य विशेषता यह थी और आजही कायम है, वह है, भारत शांतीप्रिय, सहिष्णू देश है और इसे किसी अन्य देशकी एक इंच भूमीकी भी लालच नही है | लेकीन मध्य युगके अंतिम चरणमें भारतकी अपार सहिष्णूताका अनैतिक लाभ विदेशी आक्रमकोंने लिया और भारतको एक हजार से अधिक वर्षतक गुलामी झेलनी पडी | ऐसा कहा जाता है की, 'युध्दमें जिता हुआ देश ही इतिहास लिखता है और पराजीत हुआ देशके वीरोंने किया हुआ पराक्रमकी गाथा को नजरअंदाज किया जाता है |' यही अनुभव अपने देशके अर्वाचीन (आधूनिक) इतिहास पढते है तो बार बार आता है | लेकीन सच यह है, की अनेक राजा-महाराजा, स्वातंत्र्यवीर, तथा क्रान्तीकारोंने देशके स्वतंत्रताके लिए संघर्ष किया है | किसीके हातमे सत्याग्रह और असहकार ऐसे शस्त्र थे तो किसीके हातमे समशेर तथा पिस्तोल जैसे शस्त्र थे | अपने समाजबांधवोंपर जिन ब्रिटीश अधिकारीयोंने अत्याचार किया, उनको कई क्रांतीकारकोंने चून चून करके रिव्हाॅल्वरसे मौतके घाट उतारा और भारत माता की जय करके फाँसी पर चढ गयें | उनमेसें एक अनोखा युवक क्रांतीकारका आज बलिदान दिन है | उसके साहस, पराक्रम तथा बलिदानकी यह कहानी है |
गरीब परिवारमे जन्म लिया एक बालक, अपनी उम्र तीन थी तब माताको खो बैठता है ; उम्र आठमे पिताको खो बैठता है ; वह बालक और उससे सिर्फ दो साल बडे भाईको एक संन्यासी उठाता है और अमृतसरके अनाथलयमे दाखिल करता है | अनाथालयमे दोनों भाईकी परवरीश अच्छी हो रही थी | पर एक दिन वह बालकमेसे बडा बालका भगवानको प्यारा हो जाता है | नियतीका खेल भी अजीब होता है |आपत्ती आयी तो चारों तरफसे आने लगती है | अब वह बालकके कोई रिश्तेतार जिवीत नही रहे थे | भगवान एक हातसे लेता है, तो दुसरे हातसे देता भी है, ऐसा ही कहा जाता है | अनाथोंका नाथ भगवान होता है | जल्दमे वह बालक जिंदगीका अर्थ समझता है | अनाथालयमें रहकर अनाथालयपर बोझ न बने इस भावनासे अनाथालयमें काम करना छुरू करता है | धिरे धिरे वह अनाथालयके व्यवस्थापनका एक आधार बन गया |
एक दिन उस अनाथालयके नजदिकी बागमे(वैसे तो बागसे ज्यादातर मैदान ही था) एक जनसभा हो जा रही थी | लोगोंकी भीड हुई थी | वह दिन बैसाखी उत्सवका भी था | इसिलीए वहाँ आम जनता भी अपने परिवारके साथ नजदिकके मंदिरमे भगवानका दर्शन लेकर बागमे इकठ्ठा होते रहे | जनसभा छुरू भी नही हुई थी | स्पुर्ती गायनका कार्यक्रम चल रहा था | वह युवक अनाथालयाके तरफसे लोगोंको पानी देनेका काम ऐसे इमानदारीसे कर रहा था की मानों सभी इकठ्ठा हो रहे समाजबांधव अनाथालयके अतिथी है | तब अकस्मात बागके चारों तरफसे फायरिंगकी आवाज आने लगी| लगभग सौ-सव्वासौ सिपाईके बंदूकसे एक ही सेंकद पर सौं से उपर गोलीयाँ बागमे बैठे जमावपर छूट रही थी | बच्चे-माता-बहने रो रहे, तो कोई पानी की पुकार करने लगे | तब नजदिकके अनाथालयका वह युवक बडी बालटी लेकर बागमे गया | पर वह पानी भी किसको दे ? चारों तरफसे गोलीयाँ बरसती थी | लोग इधर-उधर भागते अपनी जान बचानेकी कोशीश कर रहे थे | बागको सिर्फ एक गेट था, वहाॅसे भागनेकी कोशीश सभी कर रहे थे; वहाँ भी भिड हुई ; बडी अफरातफर मच गयी | सभामें तथा बैसाखी उत्सवमें शामील हुये जनसामान्योंको गोलीयोंसे कुचलना चालू था | बालबच्चे, माता-भगिनी, बुजूर्ग किसीको छोडा नही; लोग भागने लगे; पर रास्ता नही था ; कोई कुएमे कुद पडे, पर उनकी भी बचनेकी आकंक्षा नही थी | कोई अपराध नही, कोई चेतावनी नही, फिर भी तत्कालीन ब्रिटीश सरकार निष्पाप तथा निशस्त्र देशवासीयोंकीं बंदुकोंसे खुले आम कत्ल कर रही थी | अनाथालयके उस युवको भी गोली लगी | लेकीन हिम्मतसे जान बचानेकी कोशीश करता रहा, बाहें पाँवमेंसे खून बहता था , दाहें पाँवपर जोर लगाकर सभास्थानसे बाहर पडता है और दौडते दौडते बहूत दूरतक आता है | एक पेडके नीचे ठहरता है | जमीन पर बैठता है , हाथसे मिट्टी उठाता है , अपने ललाटपर तिलक लगाता है और प्रतिज्ञा करता है, ' मै इसका बदला लूंगा | मै जरूर बदला लूंगा | माँ मुझे साहस दे, माँ मुझे शक्ती दे, माँ अब मुझे आशिर्वाद दे |'
देवी और सज्जनों, उस युवकने देखा हुआ अमानुष नरसंहारका दृष्य कहाॅका था ? मैने बचपनमे जागृती नामका एक चित्रपट देखा था | उसमे कवी प्रदीपने रचा हुआ और खुदने गाया हूआ, गीतके स्वर,सूर धून आज भी कानोमे गूंजती है | उस गीतकी वह पंक्तीयाँ ऐसी है --
जालीनवाला बाग देखो यहाँ चली थी गोलीयाँ, ये मत पुछो किसने खेली यहाँ खूनकी होलीयाँ, एक तरफ बंदूकोंकी दनदन एक तरफसे डोलीयाँ, मरनेवाले बोल रहे थे इन्कलाबकी बोलियाँ | यहाँ लगा दी बहनोंने भी, बाजी अपनी जानकी, इस मिट्टीसे तिलक लगाओ धरती है बलिदानकी | वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम् ||
देवी और सज्जनों यह घटना १३ एप्रील १९१९ की है | जो सभा स्थान पंजाब प्रांतके अमृतसर शहरका था | उस बागकी मालकी एक जली नामके सद्गृस्थी की थी | इसिलीए उस बाग की पहचान जलीयनवाला बाग हुई | बागको सिर्फ एक प्रवेशद्वार था और वह भी चौडाईमे बहुत कम याने लगभग चार फीटका होगा | बागके चारो तरफसे दस फीट के उचीं दिवारे थी | इससे ही हम अंदाज लगा सकते है की कितने अमानूष नरसंहार ब्रिटीश सरकारने किया था | लगभग पधरासौ से अधिक लोग जख्मी हुये, 331 प्रौढ तथा 41 बालककी मृत्यु हुई थी | दुनियासे हर कोनेंसे ब्रिटीश सरकारकी अलोचना हुई | यह घटना दुनियाके इतिहासके काले पन्नेपर लिखा गया था | वैसे तो अंग्रेजके ऐसे काले कारनामें दुनियाके हर कोनेंमे लिखे हुये है | खुदको सभ्य, न्यायी, सुसंस्कृत ऐसे विशेषतायें चिपकाकर हमारे देशबांधवोंका इस तरह अमानुषतासे संहार करेनेका अंग्रेज अधिकारीयोंको हक कहाँसे आया ? हक, साफ झूठ ! वह तो इंग्लडकी साम्राज्यवादी लालसाकी प्यास बुजानेकी जंगली मनिषा तथा पहले महायुद्धमें हुई जीतकी घमेंडी थी | हिम्मत इतनी थी तो अंग्रेज सरकार और अधिकारी स्वराज हमारा जन्मसिद्ध हक है ऐसी पुकार करनेवाले लोकमान्य तिलकजीसें इतने डरतें क्यों थे ? क्यों बार बार लोकमान्य तिलक, स्वातंत्र्यवीर सावरकर तथा अन्या भारतीय क्रान्ताकारोंको जबरन सजा देनेपर इतने उतावले होते थे? सच यह है की अंग्रेजको अपना 1857 का पहला स्वतंत्रताका संग्रामका इतना भय था की फिर कहीं इससे बडा तुफान भारतीयोंमे न आये, इसिलीए खुद अंग्रेज सरकारने 1885 राष्ट्रीय सभा (काॅग्रेसकी) स्थापना कियी | बादमें बस मिठी मिठी बातें मुहपर रखकर भारतीय समाजको विभाजीत करनेकी चाल छुरू कियी | 1857 का स्वतंत्रताका युद्ध हम हार गये लेकीन उस संग्रामसे और लोकमान्य तिलक, लाला लजपतराय, तथा बिपीनचंद्र पाल की जहाल भूमिकासे संस्कार और प्रेरणा लेकर भारी संख्योमे भारतीय वीरोंने अंग्रेज सरकारके खिलाफ सशस्त्र मुकाबला किया है | उनमे वासुदेव बळवंत फडके, चाफेकर बंधू, सावरकर बंधू, भगतसिंह, चंद्रशेखर आझाद, सुखदेव, राजगुरू, बटूकेश्वर दत्त, भगवानदासचरण वोहरा, मदनलाल डींग्रा ऐसे ज्ञात और कई अनेक अज्ञात क्रांतीकारकोओं ने अपना क्षात्रतेज, साहस और पराक्रमका परिचय दिखाकर अंग्रेज सरकरके नाकमे पानी लाया था | ऐसे क्रांतीकारकोंके बलिदान का स्मरण करना यह हमारा फर्ज है | देवी और सज्जनहो, जालीयानवाला बागके हत्याकांडको गये १३ एप्रिलको सौ साल पुरे हुये है | इसी हत्याकांडका बदला लेनेवाले भारत माताका एक सुपुत्र, युवक क्रातीकारक सन 1940 में आजके दिन ही फाँसीपर चढ गया था | उसके पराक्रमको अभिवादन करनेके लिए आजके जैसा उचीत दिन कौनसा हो सकता है ?
वह युवक का नाम है क्रान्तीवीर शहीदे आजम उधमसिंह | उसका जन्म २६ डिसेंबर १८९९ पंजाबके संग्रुर जिल्हाके सुनाम गावमे हुआ था | माता- पिता गरीब थे | एक बडा भाई था | नाम था साधूसिंग | उस दोनो अनाथ बालकोंको चंद्रसिंह नामके एक संन्यासीने उठाया और अमृतसरके अनाथालयमे दाखिल किया | बडे भाईका भी आधार टूट जानेके बाद उधमसिंहने अपनी हिम्मत नही खोयी और धिरे धिरे उसी अनाथालयकी सेवाको ही अपनी गृहस्थी मानी और अनाथालयका एक सच्चा कार्यकर्ता बन गया | जलीयनवाला बागमें अंग्रेज सरकारने अपने देशवासीयोंका किया हुआ संहारके प्रतिशोधकी आग उधमसिंहको चैनसे बैठनै नही देती थी | उसने अनाथालयमे वापस न जानेका फैसला लिया | रोटी और कपडाकी जरूरतके लिए मजदूरी करने लगा, साथमे रातको वाॅचमनकी नौकरी लियी | दिन-रात मेहनत करने लगा | वह पक्का जानता था कि खाली थैली खडी नही रहती है | अपार कष्ट करके पैसा जमाकर, उसने किरायापर एक गाला लिया | वस्तू भांडारका दूकान डाला | अब पैसेकी भी आवक बढी | आसपासके परिसरमे उसे आदर मिलना छुरू हुआ, अब हिम्मत बढी | जालीयनवाला बागके हत्यांकाडका प्रतिशोध की बात वह खुले आम करने लगा | प्रायव्हेट क्लासमे जाकर प्राथमिक शिक्षा भी पुरी कियी | अपने देशमे सिर्फ व्यापारके हेतूके लिये आये , अग्रेंजके एक हजार सैनिकके सामने अपना समाज प्लासीके युद्धमे हार गया, इस इतिहासको अब उधमसिंह अच्छी तरहसे जान चूका था | समाजके सिर्फ एक वर्गको (क्षत्रिय) हत्यार रखनेकी प्रथा, अपने राजा-महाराजके ऐष वृत्ती और आपसमे वैर, जात-पातमे बटा हुआ समाज, प्रशासन, पोलीस और सेनादल मे अंग्रेजोकी चाकरी कर रहे अपने समाज बांधव, अंग्रेजकी संस्कृतीको अच्छा समझकर अपने संस्कृतीके बारेमे हीन भावना रखनेवाली नयी पिढी, पोलीसको क्रांतीकारकोकी गतीविधीयाँकी वार्ता देनेवाले जासूद भी अपनेही बांधव, जलीयानवाला बागमे नरसंहार करनेवाला पुलीस दलमें अपने ही लोग, यह सारी बातें उधमसिंहके मनको उद्विग्न करती रही |
उधमसिंहकी शिक्षा तो प्राथमिक स्तरके थी, पर कम उम्रमे नियतीके खिलाफ खेली हुई लम्बी लढाईसे मिला काफी अनुभवसे तथा व्यापारी बननेके बाद मिली हुई चतुराईसे उसे मालूम हुआ की, उसपर भी पुलीसने नजर रखी है | अब उसने दुकानपर एक भरोंसेमंद नोकर रखा | दोपहरको खाना खानेके बहाने वह दुकानसे बाहर पडता था, पर मिलने जाता था क्रांतीकारोंको | राष्ट्रीय वाःडमय तथा वृत्तपत्रे पढना छुरू किया | छुपके, छुपके भगतसिंगसे भी मिलना छुरू हुआ | भगतसिंगके कहनेपर आफ्रिखा मे जानेकी योजना बनायी | अपना अच्छा खासा दुकान बेच दिया | दुकान और उससे मिलनेवाली आमदनीकी उधमसिंहको किधर आसक्ती थी ? उसने पैसा कमाया पर खुदको भौतिक सुख मिलानेके लिए थोडी कमायी थी ? इतना साधा और सामान्य ध्येय ऊधमसिंहका नही था | मनमे जलती हुई प्रतिशोधकी आग और उच्च प्रतीकी राष्ट्रभक्तीकी ज्योत के आधारपर उधमसिंहने फेक पासपोर्ट बनाया और आफ्रीखा चला गया | भारतीय क्रान्तीकारोंकी एक गदर नामकी संघटना थी जिससे उसने खुदको जोडा था | आफ्रिखामें जाकर भगतसिंगने जैसा कहा था वैसे ही गदर संघटनाके प्रमूखको मिला | दुनियाके सामरिक शक्ती तथा आर्थिक शक्तीके रूपमे उस समय इंग्लड एक सुपर पाॅवर थी | आफ्रिकामे जाकर गदर संघटनाके प्रमूखको छुपछुपकर मिलना यह एक तरह जीवन ही दाँवपे लगाना जैसा था | हर पलपर हर कदम पर मृत्युकी छाया पडती थी | लेकीन कहा जाता है ना, God help those who help themselves. आखिर भगतसिंगने जैसा बताया था, वहाॅसे शस्त्रात्रे लेकर उधमसिंह आफ्रीखासे वापस देशमे लौटकर आया ; लेकीन अपना नाम बदलकर ; अब वह बन गया था ' बाप्या ' |
देवीयों और सज्जनों , उधमसिंह आफ्रीकामे कैसा गया, गदर नामकी भारतीय क्रांतीकारकी संघटना कैसी थी, किसने बनायी थी, भारतीय क्रांतीकारकोंका नेटवर्क, इन सब बातोंकी जानकारी स्वातंत्र्यवीर सावरकरके 'स्पूट लेख ' नामके एक मराठी किताबमे रखी है, आप जरूर इसे पढे | दुनियाके सभी देशमे भारतीय क्रांतीकारोंका एक अच्छा खासा नेटवर्क था | इस इतिहासको हमें ना कभी पढाया गया, ना पढनेके लिए साहित्यकी उपलब्धी की गयी | इंग्लड एक सुपर पाॅवर थी, पर इंग्लडके साम्राज्यवादी नीतीयाँके विरोधमें कई देश थे | वैसे तो मानवके साम्राजवादकी लालच का इतिहास सदियों पुराना है | समय समयपर बडे देशके अंदर टकराव और सुपर पाॅवरकी स्पर्धा चलती रही है | इसिका फायदा लेकर भारतीय क्रांतीकारकोंने कई देशोंके प्रमुखओंसे रिश्ता बनाके रखा था | भारतीय स्वतंत्रताकी लढाई सिर्फ देशके भीतर अंग्रेजके खिलाफ राष्ट्रीय सभाके कार्यक्रम, आंदोलन, असहकार तक सिमीत नही थी | क्रांतीकारोंकी चतुराई, उनका साहस, पराक्रम, देशको आझाद करनेमे खासा अच्छा योगदान रहा है |
उधमसिंह आफ्रिखासे बाप्या नाम लेकर वापस तो आया पर पुलीसके जासूदने (जो भारतीय ही था) उधमसिंहकी गतीविधीयाँकी जानकारी सरकारके पास पहूँचायीं | ३० ऑगस्ट १९२७ मे बाप्या याने उधमसिंहको आखिर पुलीसने हिरासतमे लिया | उधमसिंहको पाच सालकी कारावास सजा हुई | पाच सालके बाद उधमसिंह जेलसे बाहर आया | देशके स्वतंत्रताके लिए संघर्ष करनेवाले और कारावासमे जाकर बाहर आये हुये उधमसिंह पर भारतीय समाज गर्व महसूस करने लगा | अब लोग उन्हे उधभसिंहजी ऐसे संबोधन करने लगे | जैसे ही उधमसिंहजी जेलसे वापस आये तो उन्हें पता चला की भगतसिंहको फाँसी दि गयी थी | इस बातसे उधमसिंहजींके क्रोधकी आग मस्तकमें गयी | लेकीन दिलमे राष्ट्रभक्तीकी ज्योत मस्तकको शीतल बनाती थी, और ध्येयपर अटल रहनेकी ताकद भी दे रही थी | उधमसिंहको जेलसे रिहा होनेके बाद एक दुसरे घटनाकी खबर मिली, वह थी, जलीयानवाला बागमे अपने समाजबांधव, माता- बहनों, बाल-बच्चोंका नरसंहार करनेवाले जनरल डायर मर चूका था |
जनरल डायरको आंतरराष्ट्रीय दबावके वजहसे अंग्रेज सरकारने सेवासे बरखास्त किया था | उसे ब्रिटनमें वापस बुलाया गया था | उसके कृत्यपर एक इन्क्वायरी समिती गठीत हुई | पर वह इन्क्वायरी समितीने जनरल डायरको बाइज्जत रिहा किया था | लेकीन जिस तरह जनरल डायरकी मौत हुई उसकी जानकारी मिलनेके बाद ' नियती की भी अपनी स्वतंत्र न्यायव्यवस्था है ' इस बात पर उधमसिंहजीका विश्वास हुआ | जनरल डायर अपने कर्मोंसे ही मर गया | गावमें जैसे ही निवृत्तीका जीवन बिताना छुरू करता है, जनरल डायरको एक के बाद एक बडी बिमारीयोंने पकड ही लिया | ऐसी बिमारीयाँ मानो जलीयानवाला बागके नरसंहारके दृष्कृत्यका नियती उससे हिसाब चूकाती
थी | बिमारियाँ भी इस तरह उसे त्रस्त करती रही जैसे वह नरक की जिंदगी जी रहा था | पहले जाॅन्डीसकी बीमारी, बादमे हार्टकी, उसके बाद पॅरालायझेस ! लगभग पाँच साल बिमारीसे परेशान होकर 10 जुलै 1926 मे वह अपने बहूसे बोला, " बहूँ ,अब प्रभू मुझपर दया करें तो अच्छा होगा, मैंने भारतके जालीयनवाला बागमे हत्याकांडका पाप किया, अब मुझे मेरा तिरस्कार हो रहा है, मैंने वह पाप किया अच्छा नही किया | " उस दिनसे तेरह दिनके बाद जनरल डायरने दम तोडा | जनरल डायरकी बिमारीयाँ और परेशानीवाली मौतकी वार्तासे उधमसिंहके मनको थोडीसी क्यों न हो शान्ती मिली | वैसे तो उधमसिंहको जनरल डायरसे अधिक गुस्सा गव्हर्नर मायकेल ओडावायर पर ज्यादा था | क्यों की, उन्होंने जालियनवाला बागमे उपस्थित देशवासियोंपर गोलीयाँ उडानेका आदेश दिया था | उधमसिंहजीका पहला लक्ष्य मायकेल ओडवायरको ही उडानेका था | इसिलीए वह बेचैन था |
भगतसिंगके बलिदानके बाद ब्रिटीश सत्ताके हीट लिस्टपर अब उधमसिहंजी का नाम था | फिर वेष, नाम बदलकर उधमसिंहजीने देशसे पलायन किया और इजिप्त गये | अब वह गव्हर्नर ओडवायरको खत्म करनेकी प्रतिज्ञा करके ही देशके बाहर निकल पडे थे, और ओडवायरको खत्म करनेके बाद ही देशमे वापस जाना तय किया था | क्योंकी ओडवायर पर जालियानवाला बागके हत्याकांडका ना इल्जाम था, ना कोई उन्हे हत्यारा मानता था | ओडवायर रिटायर्ड होकर इंगलंडमे शौकसे जिंदगी गुजारता था | उधमसिंहजीने इजिप्तके बाद ॲबेसिनीया, रशिया, फ्रान्स, जर्मन ऐसे एक के बाद देशोमे स्थित भारतीय क्रांतीवीरोंओंसे सलाह-मशहुरा लेनेकी कवायत छुरू कियी | वैसे तो दुनियाके कई देश ऐसे थे जो इंग्लडके साम्राज्यको कमजोर करनेकी मनिषा रखते थे | और उसी देशमें भारतीय क्रान्तीवीरोंका नेटवर्क मजबूत था | १९३६ से१९३९ तक उधमसिंहजीने नाम बदलकर तीन बार युरोप का प्रवास किया था | जर्मन रेडीओ के अधिकारी अब्दूल रहिमान से मिले, रशियाके ताश्कंद, तथा जिनिव्हा निर्वासित देशभक्त सरदार अजितसिंगसे भी मिलकर आये थे | १९३७ मे ईस्ट लंडनके गरीब वस्तीके १५, आर्टीलरी पॅसेजमे एक ८० उमरके अजितसिंहके साथ रहने लगे | जिन देशोंमें जाकर उधमसिंहजीने सैनिकी अधिकारीयोंसे और भारतीय क्रांतीकारोंसे वार्तालाप किया था ,उन्हीसें बहूत नये ढंगके पिस्तूल भी लाये थे | लेकीन ८० उमरके अजितसिंह को भारी गुस्सा आया था लेकीन उसने उधमसिंहजीको अपना गुस्सा दिखाया नही | जब उधमसिंहजी कुछ कामके लिए बाहर गये थे, तो उसने उधमसिंहजीकी शस्त्रोंसे भरी हुई बॅगको टेम्स नदीमें फेंक दी और उधमसिंहजींको घर छोडनेको मजबूर किया |
फिर भी उधमसिंह विचलीत नही हुये | वह जगह उसने छोडी और दुसरे जगह रहने गये | वहाॅ महाराष्ट्रके पुने शहरसे प्रकाशित होनेवाले केसरीके वार्ताहार दत्तोपंत ताम्हणकरसे मिलना छुरू किया | कुछ दिनके बाद उधमसिंहजीने जिसको मारना था उस गव्हर्नसे भी दोस्ती की | कितना बडा साहस और कितनी बडी चलाखी ! जब जब उधमसिंहजी ओडवायरको मिलते थे, तब वह जरूर मनही मनमे बोलते रहे होगे, गव्हर्नर साहब, अब मैं तुम्हें खत्म करूंगा, तब जमीन तुम्हारी होगी और सुरक्षा दल भी तुम्हारा होगा लेकीन इस बार पिस्तोल मेरा होगा और निशाना भी मेरा रहेगा | अब उधमसिंहजींने उँची कपडे परिधान करना छुरू किया | शिक्षा, पढाई करनेके उम्रमें नियतीद्वारा वंचीत रहे उधमसिंहजीने अबतक सफाईसे अंग्रेजी भी बोलना सिख लिया था | अपने ध्येयको साकार करनेके लिए उधमसिंहजींने अपने ध्येयको ही गुरू बनाया था | उधमसिंहजी हर रोज ओडवायरके घर चायपान करने लगे | ओडवायरने बातों बातोंमे जलीयानवाला बागके हत्यांकाडके समर्थनपर बातें भी कियी | ओडवायरको शक भी नही आया की वह उसके मौतके साथ दोस्ती करके बैठा था |
एक दिन ईस्ट इंडीया असोशियन ॲन्ड राॅयल एशिया सोसायटी द्वारा कॅक्सटन हाॅलमे एक सभाका आयोजन था | उस सभामें प्रमूख अतिथी लार्ड झेंटलंड और गव्हर्नर मायकल ओडवायर इन दोनोंको भाषण था | अब ओडवायरके खास दोस्त बने उधमसिंहजीको उस सभामे स्पेशल पास मिलना तो मामूली बात बनी थी | दिन था १३ मार्च १९४० | बस वही दिन मायकल ओडवायरका खात्मा करनेका उधमसिंहजीने अपना मन बनाया | दोपहरको ही उधमसिंहजीने एक नया सुट खरेदी किया, सिर पर फेल्ट हॅट, नया सुटमे रिव्हाल्वर, चार मॅगेझिनमें पचीस काडसूतें और यदि यह काममें न आये तो बडा चाकू पॅन्टमे डालके शामको चार बजे उधमसिंहजी उस कॅक्सटन हाॅलमे पहूचते है | मुख्य अतिथी लार्ड झेंटलंडका, लार्ड लॅमींग्टनके साथ सभागृहमे आगमन हुआ | तालीयोंसे उनका स्वागत हुआ और दोनो नेता मंचपर बैठ गये | गव्हर्नर ओडवायर सभागृहके पहले रोके बाहे कोनेसे आखिर आसनपर बैठे थे | उधमसिंहजी ओडवायरसे थोडी दूरी पर थे | सभा छुरू हुई | सभा समाप्त हुई | लार्ड झेंटलंड, लार्ड लॅमींग्टन, मंचसे उतरे और पहले रो मे बैठें गव्हर्नर ओडवायरके पास आकर हस्तालांदोन करने लगे तब उधमसिह॔जीने पिस्तूल चलाया | एक के बाद एक ऐसे छ गोलीयाॅ ओडवायरपर चलायी | हाॅलमे अफरातफर हुई | श्रोता लोग हाॅलके बार निकलनेकी जल्दबाजी कर रहे थे | तब उधमसिंहके पिस्टोलसे निकली दो गोली गव्हर्नर ओडवायरके पीठमे घुसके सिधे बाहर निकली | वह जमीनपर गिरा और तात्काल नरकमे पहुच गया | दो गोलीयाँ लार्ड झेंटलंडको लगी वे भी जमीनपर गिरे, एक गोलीसे लार्ड लॅमीन्गटनको और एक गोली सर लूई डेनको लगी, दोनों एक हातसे अंपग बने | लार्ड झेटलंटको अस्पतालमे दाखिल कराया | क्या हो रहा है इस बातको, हाॅलसे बाहर निकलनेवाले श्रोताओंको समझनसे पहले उधमसिंहजी अपना काम पुरा करके हाॅलसे निकल पडे थे | सन 1909 मे स्वातंत्र्यवीर सावरकरके शिष्य मदनलाल डिंग्राजीने सर वायलीको जिस हाॅलमे मौतके घाट उतारा था, उसी हाॅलमे उधमसिंहजीने गव्हर्नर ओडवायरको खत्म करकर ब्रिटन जैसे महशक्तीको हिला दिया |
उधमसिंहजी हाॅलसे पर बाहर निकले और भागते रहे लेकीन चारों तरफसे पुलीसकी यंत्रणा काममे लगी थी | आखिर वह गिरफ्तार हो गये | दुसरे दिन दुनियाभरमके सभी वृत्तपत्रमें उधमसिंहजीका साहस और पराक्रमकी वार्ता फ्रंट पेज पर छपी गयी | अमेरिकन लेखक अपने बर्लीन डायरीमे लिखते है की गांधीको छोडकर सभी हिंदी लोग ओडवायरका वध यह एक दैवी प्रतीशोध मानते होगे | ' जर्मन वृत्तपत्रने हेडलाईन दि ' हिंदी लोगोंपर अत्याचार करनेवाले नराधम सत्ताधीशका खात्मा |"
बादमे इस घटनाका पुलीस पंचनामा तथा इन्क्वायरी हुई | सबूत एकठ्ठ होकर न्यायालयामे उधमसिहजीके खिलाफ दावा पेश हुआ और सुनावणी हो गयी | न्यायालयमने उधमसिंहजीको उनका निवेदन करनेको कहा तब उधमसिंहजीने न्यायालयमे कहा, " मै मौतसे कभी डर नही गया | जल्द ही मेरा फाँसीसे ब्याह होगा | इसका मुझे दुःख नही है , क्यों की मै मेरे मातृभूमीका एक सिपाई हूँ | ब्रिटीश सरकारने हमारे समाजबांधवोपर अमानुष अत्याचार किये है | अमृतसरमे जनरल डायरने निष्पाप बाल-बच्चे, माता-भगिनी, युवा बुजूर्गोंकी खुले आम कत्ल की है ,इसे मैंने मेरे आँखोंसे देखा है | जनरल डायरने गव्हर्नर ओडवायरके निर्देशसे यह हत्याकांड किया है | एकीस साल मेरे मनमे उस हत्याकांडसे प्रतिशोधकी आग लगी हुई थी | इसिलीए मैने ओडवायरका खात्मा किया | रौलट जैसे काला कानूनके खिलाफ आंदोलन करनेवालोंको उसने घसीटकर मारा, पिटा, जेलमें बंद करके खुले आम दशहत बिठानेकी कोशीश की थी | वह खूनका प्यासा था , एक शैतान था | इसी तरहसे उसको मौत आना जरूरी था | वह मेरा परम कर्तव्य था | यदि मै ओडवायरको खत्म न करता तो हिंदुस्थानपर एक दाग रह जाता | मेरे मातृभूमीके हितके लिए मुझे फाँसी होना इससे बडा आनंद किसमे मिल सकता है | "
न्यायालयने उधमसिंहजीपर लगे आरोपोंसंबंधी ब्रिटीश सरकारके तरफसे दिये हुये सबूतको स्विकार करके उधमसिंहजीको फाँसी की शिक्षा सुनाई | ' यह निर्णय सुनकर उधमसिंहजी थोडेसे भी विचलीत नही हुये | उल्टा उनके मुखपर एक समाधान की चमक दिखी | न्यायालयके निकाल के पुर्व उधमसिंहजीने 42 दिनका फास्टिंग किया था ' ऐसी जानकारी केसरी वृत्तपत्रके लंडनके वार्ताहार दत्तोपंत ताम्हाणेंने दियी | जहाँ मदनलाल डिंग्राजीको फाँसी दिया था उसी कारागृहमे उधमसिंहजीको 31 जूलै 1940 को फाँसी दिया गया | क्रान्तीवीर उधमसिंहजीको मेरे कोटी कोटी प्रणाम |
हर क्रान्तीकारके बलिदानके दिनपर हम उनके बलिदानका स्मरण करें तथा उनके जीवनगाथाका पारायण करे तो हमें सदाकाल प्रेरणा मिलती रहेगी, ऐसा विश्वास व्यक्त कर मै इस दिर्घ कथा-कथनको यहाँ विराम देता हूँ |
कोणत्याही टिप्पण्या नाहीत:
टिप्पणी पोस्ट करा