बुधवार, ३१ जुलै, २०१९

31जूलै - एक क्रांतीवीरके बलिदानकी अनोखी कथा

भारत एक प्राचीन देश है | हमारी संस्कृती भी सबसे प्राचीन है | दुनियाके मशहूर इतिहास तज्ञ विली ड्युरांट कहते है, " मनकी विशुध्दता, परिपक्वता और व्यापकता सिखनेका है तो, दुनियामें सिर्फ एक ही देश है, और वह है भारत ! " लार्ड कर्झन, डाॅ ॲनी बेंझट और अनेक पश्चीमी तथा पौर्वात्य नेता और विचारवंतोने भारतकी गुरूकुल व्यवस्था तथा संस्कृतीका गौरव किया है | भारतकी  एक असामान्य विशेषता यह थी और आजही कायम है, वह है, भारत शांतीप्रिय, सहिष्णू देश है और इसे किसी अन्य देशकी एक इंच भूमीकी भी लालच नही है | लेकीन मध्य युगके अंतिम चरणमें भारतकी अपार सहिष्णूताका अनैतिक लाभ विदेशी आक्रमकोंने लिया और भारतको एक हजार से अधिक वर्षतक गुलामी झेलनी पडी | ऐसा कहा जाता है की, 'युध्दमें जिता हुआ देश ही इतिहास लिखता है और पराजीत हुआ देशके वीरोंने किया हुआ पराक्रमकी गाथा को नजरअंदाज किया जाता है |' यही अनुभव अपने देशके अर्वाचीन (आधूनिक) इतिहास पढते है तो बार बार आता है | लेकीन सच यह है, की अनेक राजा-महाराजा, स्वातंत्र्यवीर, तथा क्रान्तीकारोंने देशके स्वतंत्रताके लिए संघर्ष किया है | किसीके हातमे सत्याग्रह और असहकार ऐसे शस्त्र थे तो किसीके हातमे समशेर तथा पिस्तोल जैसे शस्त्र थे | अपने समाजबांधवोंपर जिन ब्रिटीश अधिकारीयोंने अत्याचार किया, उनको कई क्रांतीकारकोंने चून चून करके रिव्हाॅल्वरसे मौतके घाट उतारा और भारत माता की जय करके फाँसी पर चढ गयें | उनमेसें एक अनोखा युवक क्रांतीकारका आज बलिदान दिन है | उसके साहस, पराक्रम तथा बलिदानकी यह कहानी है |

गरीब परिवारमे जन्म लिया एक बालक, अपनी उम्र तीन थी तब माताको खो बैठता है ; उम्र आठमे पिताको खो बैठता है ; वह बालक और उससे सिर्फ दो साल बडे भाईको एक संन्यासी उठाता है और अमृतसरके अनाथलयमे दाखिल करता है | अनाथालयमे दोनों भाईकी परवरीश अच्छी हो रही थी | पर एक दिन वह बालकमेसे बडा बालका भगवानको प्यारा हो जाता है | नियतीका खेल भी अजीब होता है |आपत्ती आयी तो चारों तरफसे आने लगती है | अब वह बालकके कोई रिश्तेतार जिवीत नही रहे थे | भगवान एक हातसे लेता है, तो दुसरे हातसे देता भी है, ऐसा ही कहा जाता है | अनाथोंका नाथ भगवान होता है | जल्दमे वह बालक जिंदगीका अर्थ समझता है | अनाथालयमें रहकर अनाथालयपर बोझ न बने इस भावनासे अनाथालयमें काम करना छुरू करता है | धिरे धिरे वह अनाथालयके व्यवस्थापनका एक आधार बन गया |

एक दिन उस अनाथालयके नजदिकी बागमे(वैसे तो बागसे ज्यादातर मैदान ही था) एक जनसभा हो जा रही थी | लोगोंकी भीड हुई थी | वह दिन बैसाखी उत्सवका भी था | इसिलीए वहाँ आम जनता भी अपने परिवारके साथ नजदिकके मंदिरमे भगवानका दर्शन लेकर बागमे इकठ्ठा होते रहे | जनसभा छुरू भी नही हुई थी | स्पुर्ती गायनका कार्यक्रम चल रहा था | वह युवक अनाथालयाके तरफसे लोगोंको पानी देनेका काम ऐसे इमानदारीसे कर रहा था की मानों सभी इकठ्ठा हो रहे समाजबांधव अनाथालयके अतिथी है | तब अकस्मात बागके चारों तरफसे फायरिंगकी आवाज आने लगी| लगभग सौ-सव्वासौ सिपाईके बंदूकसे एक ही सेंकद पर सौं से उपर गोलीयाँ बागमे बैठे जमावपर छूट रही थी | बच्चे-माता-बहने रो रहे, तो कोई पानी की पुकार करने लगे | तब नजदिकके अनाथालयका वह युवक बडी बालटी लेकर बागमे गया | पर वह पानी भी किसको दे ? चारों तरफसे गोलीयाँ बरसती थी | लोग इधर-उधर भागते अपनी जान बचानेकी कोशीश कर रहे थे | बागको सिर्फ एक गेट था, वहाॅसे भागनेकी कोशीश सभी कर रहे थे; वहाँ भी भिड हुई ; बडी अफरातफर मच गयी | सभामें तथा बैसाखी उत्सवमें शामील हुये जनसामान्योंको गोलीयोंसे कुचलना चालू था | बालबच्चे, माता-भगिनी, बुजूर्ग किसीको छोडा नही; लोग भागने लगे; पर रास्ता नही था ; कोई कुएमे कुद पडे, पर उनकी भी बचनेकी आकंक्षा नही थी | कोई अपराध नही, कोई चेतावनी नही, फिर भी तत्कालीन ब्रिटीश सरकार निष्पाप तथा निशस्त्र देशवासीयोंकीं बंदुकोंसे खुले आम कत्ल कर रही थी | अनाथालयके उस युवको भी गोली लगी | लेकीन हिम्मतसे जान बचानेकी कोशीश करता रहा, बाहें पाँवमेंसे खून बहता था , दाहें पाँवपर जोर लगाकर सभास्थानसे बाहर पडता है और दौडते दौडते बहूत दूरतक आता है | एक पेडके नीचे ठहरता है | जमीन पर बैठता है , हाथसे मिट्टी उठाता है , अपने ललाटपर तिलक लगाता है और प्रतिज्ञा करता है, ' मै इसका बदला लूंगा | मै जरूर बदला लूंगा | माँ मुझे साहस दे, माँ मुझे शक्ती दे, माँ अब मुझे आशिर्वाद दे |'

देवी और सज्जनों, उस युवकने देखा हुआ अमानुष नरसंहारका दृष्य कहाॅका था ? मैने बचपनमे जागृती नामका एक चित्रपट देखा था | उसमे कवी प्रदीपने रचा हुआ और खुदने गाया हूआ, गीतके स्वर,सूर धून आज भी कानोमे गूंजती है | उस गीतकी वह पंक्तीयाँ ऐसी है --

जालीनवाला बाग देखो  यहाँ चली थी गोलीयाँ,      ये मत पुछो किसने खेली यहाँ खूनकी होलीयाँ,    एक तरफ बंदूकोंकी दनदन एक तरफसे डोलीयाँ,  मरनेवाले बोल रहे थे इन्कलाबकी बोलियाँ |      यहाँ  लगा दी बहनोंने भी, बाजी अपनी जानकी, इस मिट्टीसे तिलक लगाओ धरती है बलिदानकी |      वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम् || 

देवी और सज्जनों यह घटना १३ एप्रील १९१९ की है | जो सभा स्थान पंजाब प्रांतके अमृतसर शहरका था | उस बागकी मालकी एक जली नामके सद्गृस्थी की थी | इसिलीए उस बाग की पहचान जलीयनवाला बाग हुई | बागको सिर्फ एक प्रवेशद्वार था और वह भी चौडाईमे बहुत कम याने लगभग चार फीटका होगा | बागके चारो तरफसे दस फीट के उचीं दिवारे थी | इससे ही हम अंदाज लगा सकते है की कितने अमानूष नरसंहार ब्रिटीश सरकारने किया था | लगभग पधरासौ से अधिक लोग जख्मी हुये, 331 प्रौढ तथा 41 बालककी मृत्यु हुई थी | दुनियासे हर कोनेंसे ब्रिटीश सरकारकी अलोचना हुई | यह घटना दुनियाके इतिहासके काले पन्नेपर लिखा गया था | वैसे तो अंग्रेजके ऐसे काले कारनामें दुनियाके हर कोनेंमे लिखे हुये है | खुदको सभ्य, न्यायी, सुसंस्कृत ऐसे विशेषतायें चिपकाकर हमारे देशबांधवोंका इस तरह अमानुषतासे संहार करेनेका अंग्रेज अधिकारीयोंको हक कहाँसे आया ? हक, साफ झूठ ! वह तो इंग्लडकी साम्राज्यवादी लालसाकी प्यास बुजानेकी जंगली मनिषा तथा पहले महायुद्धमें हुई जीतकी घमेंडी थी | हिम्मत इतनी थी तो अंग्रेज सरकार और अधिकारी  स्वराज हमारा जन्मसिद्ध हक है  ऐसी पुकार करनेवाले लोकमान्य तिलकजीसें इतने डरतें क्यों थे ? क्यों बार बार लोकमान्य तिलक, स्वातंत्र्यवीर सावरकर तथा अन्या भारतीय क्रान्ताकारोंको जबरन सजा देनेपर इतने उतावले होते थे? सच यह है की अंग्रेजको अपना 1857 का पहला स्वतंत्रताका संग्रामका इतना भय था की फिर कहीं इससे बडा तुफान भारतीयोंमे न आये, इसिलीए खुद अंग्रेज सरकारने 1885 राष्ट्रीय सभा (काॅग्रेसकी) स्थापना कियी | बादमें बस मिठी मिठी बातें मुहपर रखकर भारतीय समाजको विभाजीत करनेकी चाल छुरू कियी | 1857 का स्वतंत्रताका युद्ध हम हार गये लेकीन उस संग्रामसे और लोकमान्य तिलक, लाला लजपतराय, तथा बिपीनचंद्र पाल की जहाल भूमिकासे संस्कार और प्रेरणा लेकर भारी संख्योमे भारतीय वीरोंने अंग्रेज सरकारके खिलाफ सशस्त्र मुकाबला किया है | उनमे वासुदेव बळवंत फडके, चाफेकर बंधू, सावरकर बंधू, भगतसिंह, चंद्रशेखर आझाद, सुखदेव, राजगुरू, बटूकेश्वर दत्त, भगवानदासचरण वोहरा, मदनलाल डींग्रा ऐसे ज्ञात और कई अनेक अज्ञात क्रांतीकारकोओं ने अपना क्षात्रतेज, साहस और पराक्रमका परिचय दिखाकर अंग्रेज सरकरके नाकमे पानी लाया था | ऐसे क्रांतीकारकोंके बलिदान का स्मरण करना यह हमारा फर्ज है | देवी और सज्जनहो, जालीयानवाला बागके हत्याकांडको गये १३ एप्रिलको सौ साल पुरे हुये है | इसी हत्याकांडका बदला लेनेवाले भारत माताका एक सुपुत्र, युवक क्रातीकारक सन 1940 में आजके दिन ही फाँसीपर चढ गया था | उसके पराक्रमको अभिवादन करनेके लिए आजके जैसा उचीत दिन कौनसा हो सकता है ?

वह युवक का नाम है क्रान्तीवीर शहीदे आजम उधमसिंह | उसका जन्म २६ डिसेंबर १८९९ पंजाबके संग्रुर जिल्हाके सुनाम गावमे हुआ था | माता- पिता गरीब थे | एक बडा भाई था | नाम था साधूसिंग | उस दोनो अनाथ बालकोंको चंद्रसिंह नामके एक संन्यासीने उठाया और अमृतसरके अनाथालयमे दाखिल किया | बडे भाईका भी आधार टूट जानेके बाद उधमसिंहने अपनी हिम्मत नही खोयी और धिरे धिरे उसी अनाथालयकी सेवाको ही अपनी गृहस्थी मानी और अनाथालयका एक सच्चा कार्यकर्ता बन गया | जलीयनवाला बागमें अंग्रेज सरकारने अपने देशवासीयोंका किया हुआ संहारके प्रतिशोधकी आग उधमसिंहको चैनसे बैठनै नही देती थी | उसने अनाथालयमे वापस न जानेका फैसला लिया | रोटी और कपडाकी जरूरतके लिए मजदूरी करने लगा, साथमे रातको वाॅचमनकी नौकरी लियी | दिन-रात मेहनत करने लगा | वह पक्का जानता था कि खाली थैली खडी नही रहती है | अपार कष्ट करके पैसा जमाकर, उसने किरायापर एक गाला लिया | वस्तू भांडारका दूकान डाला | अब पैसेकी भी आवक बढी | आसपासके परिसरमे उसे आदर मिलना छुरू हुआ, अब हिम्मत बढी | जालीयनवाला बागके हत्यांकाडका प्रतिशोध की बात वह खुले आम करने लगा | प्रायव्हेट क्लासमे जाकर प्राथमिक शिक्षा भी पुरी कियी | अपने देशमे सिर्फ व्यापारके हेतूके लिये आये , अग्रेंजके एक हजार सैनिकके सामने अपना समाज प्लासीके युद्धमे हार गया, इस इतिहासको अब उधमसिंह अच्छी तरहसे  जान चूका था | समाजके सिर्फ एक वर्गको (क्षत्रिय) हत्यार रखनेकी प्रथा, अपने राजा-महाराजके ऐष वृत्ती और आपसमे वैर, जात-पातमे बटा हुआ समाज, प्रशासन, पोलीस और सेनादल मे अंग्रेजोकी चाकरी कर रहे अपने समाज बांधव, अंग्रेजकी संस्कृतीको अच्छा समझकर अपने संस्कृतीके बारेमे हीन भावना रखनेवाली नयी पिढी, पोलीसको क्रांतीकारकोकी गतीविधीयाँकी वार्ता देनेवाले जासूद भी अपनेही बांधव, जलीयानवाला बागमे नरसंहार करनेवाला पुलीस दलमें अपने ही लोग, यह सारी बातें उधमसिंहके मनको उद्विग्न करती रही |

उधमसिंहकी शिक्षा तो प्राथमिक स्तरके थी, पर कम उम्रमे नियतीके खिलाफ खेली हुई लम्बी लढाईसे मिला काफी अनुभवसे तथा व्यापारी बननेके बाद मिली हुई चतुराईसे उसे मालूम हुआ  की, उसपर भी पुलीसने नजर रखी है | अब उसने दुकानपर एक भरोंसेमंद नोकर रखा | दोपहरको खाना खानेके बहाने वह दुकानसे बाहर पडता था, पर मिलने जाता था क्रांतीकारोंको | राष्ट्रीय वाःडमय तथा वृत्तपत्रे पढना छुरू किया | छुपके, छुपके भगतसिंगसे भी मिलना छुरू हुआ | भगतसिंगके कहनेपर आफ्रिखा मे जानेकी योजना बनायी | अपना अच्छा खासा दुकान बेच दिया | दुकान और उससे मिलनेवाली आमदनीकी उधमसिंहको किधर आसक्ती थी ? उसने पैसा कमाया पर खुदको भौतिक सुख मिलानेके लिए थोडी कमायी थी ? इतना साधा और सामान्य ध्येय ऊधमसिंहका नही था | मनमे जलती हुई प्रतिशोधकी आग और उच्च प्रतीकी राष्ट्रभक्तीकी ज्योत के आधारपर उधमसिंहने फेक पासपोर्ट बनाया और आफ्रीखा चला गया | भारतीय क्रान्तीकारोंकी एक गदर नामकी संघटना थी जिससे उसने खुदको जोडा था | आफ्रिखामें जाकर भगतसिंगने जैसा कहा था वैसे ही गदर संघटनाके प्रमूखको मिला | दुनियाके सामरिक शक्ती तथा आर्थिक शक्तीके रूपमे उस समय इंग्लड एक सुपर पाॅवर थी | आफ्रिकामे जाकर गदर संघटनाके प्रमूखको छुपछुपकर मिलना यह एक तरह जीवन ही दाँवपे लगाना जैसा था | हर पलपर हर कदम पर मृत्युकी छाया पडती थी | लेकीन कहा जाता है ना, God help those who help themselves. आखिर भगतसिंगने जैसा बताया था, वहाॅसे शस्त्रात्रे लेकर उधमसिंह आफ्रीखासे वापस देशमे लौटकर आया ; लेकीन अपना नाम बदलकर ; अब वह बन गया था ' बाप्या ' |

देवीयों और सज्जनों , उधमसिंह आफ्रीकामे कैसा गया, गदर नामकी भारतीय क्रांतीकारकी संघटना कैसी थी, किसने बनायी थी, भारतीय क्रांतीकारकोंका नेटवर्क, इन सब बातोंकी जानकारी स्वातंत्र्यवीर सावरकरके 'स्पूट लेख ' नामके एक मराठी किताबमे रखी है, आप जरूर इसे पढे | दुनियाके सभी देशमे भारतीय क्रांतीकारोंका एक अच्छा खासा नेटवर्क था | इस इतिहासको हमें ना कभी पढाया गया, ना पढनेके लिए साहित्यकी उपलब्धी की गयी | इंग्लड एक सुपर पाॅवर थी, पर इंग्लडके साम्राज्यवादी नीतीयाँके विरोधमें कई देश थे | वैसे तो मानवके साम्राजवादकी लालच का इतिहास सदियों पुराना है | समय समयपर बडे देशके अंदर टकराव और सुपर पाॅवरकी स्पर्धा चलती रही है | इसिका फायदा लेकर भारतीय क्रांतीकारकोंने कई देशोंके प्रमुखओंसे रिश्ता बनाके रखा था | भारतीय स्वतंत्रताकी लढाई सिर्फ देशके भीतर अंग्रेजके खिलाफ राष्ट्रीय सभाके कार्यक्रम, आंदोलन, असहकार तक सिमीत नही थी | क्रांतीकारोंकी चतुराई, उनका साहस, पराक्रम, देशको आझाद करनेमे खासा अच्छा योगदान रहा है |

उधमसिंह आफ्रिखासे बाप्या नाम लेकर वापस तो आया पर पुलीसके जासूदने (जो भारतीय ही था) उधमसिंहकी गतीविधीयाँकी जानकारी सरकारके पास पहूँचायीं | ३० ऑगस्ट १९२७ मे बाप्या याने उधमसिंहको आखिर पुलीसने हिरासतमे लिया | उधमसिंहको पाच सालकी कारावास सजा हुई | पाच सालके बाद उधमसिंह जेलसे बाहर आया | देशके स्वतंत्रताके लिए संघर्ष करनेवाले और कारावासमे जाकर बाहर आये हुये उधमसिंह पर भारतीय समाज गर्व महसूस करने लगा | अब लोग उन्हे उधभसिंहजी ऐसे संबोधन करने लगे | जैसे ही उधमसिंहजी जेलसे वापस आये तो उन्हें पता चला की भगतसिंहको फाँसी दि गयी थी | इस बातसे उधमसिंहजींके क्रोधकी आग मस्तकमें गयी | लेकीन दिलमे राष्ट्रभक्तीकी ज्योत मस्तकको शीतल बनाती थी, और ध्येयपर अटल रहनेकी ताकद भी दे रही थी | उधमसिंहको जेलसे रिहा होनेके बाद एक दुसरे घटनाकी खबर मिली, वह थी, जलीयानवाला बागमे अपने समाजबांधव, माता- बहनों, बाल-बच्चोंका नरसंहार करनेवाले जनरल डायर मर चूका था |

जनरल डायरको आंतरराष्ट्रीय दबावके वजहसे अंग्रेज सरकारने सेवासे बरखास्त किया था | उसे ब्रिटनमें वापस बुलाया गया था | उसके कृत्यपर एक इन्क्वायरी समिती गठीत हुई | पर वह इन्क्वायरी समितीने जनरल डायरको बाइज्जत रिहा किया था | लेकीन जिस तरह जनरल डायरकी मौत हुई उसकी जानकारी मिलनेके बाद ' नियती की भी अपनी स्वतंत्र न्यायव्यवस्था है ' इस बात पर उधमसिंहजीका विश्वास हुआ | जनरल डायर अपने कर्मोंसे ही मर गया | गावमें जैसे ही निवृत्तीका जीवन बिताना छुरू करता है, जनरल डायरको एक के बाद एक बडी बिमारीयोंने पकड ही लिया | ऐसी बिमारीयाँ मानो जलीयानवाला बागके नरसंहारके दृष्कृत्यका नियती उससे हिसाब चूकाती
थी | बिमारियाँ भी इस तरह उसे त्रस्त करती रही जैसे वह नरक की जिंदगी जी रहा था | पहले जाॅन्डीसकी बीमारी, बादमे हार्टकी, उसके बाद पॅरालायझेस ! लगभग पाँच साल बिमारीसे परेशान होकर 10 जुलै 1926 मे वह अपने बहूसे बोला, " बहूँ ,अब प्रभू मुझपर दया करें तो अच्छा होगा, मैंने भारतके जालीयनवाला बागमे हत्याकांडका पाप किया, अब मुझे मेरा तिरस्कार हो रहा है, मैंने वह पाप किया अच्छा नही किया | " उस दिनसे तेरह दिनके बाद जनरल डायरने दम तोडा | जनरल डायरकी बिमारीयाँ और परेशानीवाली मौतकी वार्तासे उधमसिंहके मनको थोडीसी क्यों न हो  शान्ती मिली | वैसे तो उधमसिंहको जनरल डायरसे अधिक गुस्सा गव्हर्नर मायकेल ओडावायर पर ज्यादा था | क्यों की, उन्होंने जालियनवाला बागमे उपस्थित देशवासियोंपर गोलीयाँ उडानेका आदेश दिया था | उधमसिंहजीका पहला लक्ष्य मायकेल ओडवायरको ही उडानेका था | इसिलीए वह बेचैन था |

भगतसिंगके बलिदानके बाद ब्रिटीश सत्ताके हीट लिस्टपर अब उधमसिहंजी का नाम था | फिर वेष, नाम बदलकर उधमसिंहजीने देशसे पलायन किया और इजिप्त गये | अब वह गव्हर्नर ओडवायरको खत्म करनेकी प्रतिज्ञा करके ही देशके बाहर निकल पडे थे, और ओडवायरको खत्म करनेके बाद ही देशमे वापस जाना तय किया था | क्योंकी ओडवायर पर जालियानवाला बागके हत्याकांडका ना इल्जाम था, ना कोई उन्हे हत्यारा मानता था | ओडवायर रिटायर्ड होकर इंगलंडमे शौकसे जिंदगी गुजारता था | उधमसिंहजीने इजिप्तके बाद ॲबेसिनीया, रशिया, फ्रान्स, जर्मन ऐसे एक के बाद देशोमे स्थित भारतीय क्रांतीवीरोंओंसे सलाह-मशहुरा लेनेकी कवायत छुरू कियी | वैसे तो दुनियाके कई देश ऐसे थे जो इंग्लडके साम्राज्यको कमजोर करनेकी मनिषा रखते थे | और उसी देशमें भारतीय क्रान्तीवीरोंका नेटवर्क मजबूत था | १९३६ से१९३९ तक उधमसिंहजीने नाम बदलकर तीन बार युरोप का प्रवास किया था | जर्मन रेडीओ के अधिकारी अब्दूल रहिमान से मिले, रशियाके ताश्कंद, तथा जिनिव्हा निर्वासित देशभक्त सरदार अजितसिंगसे भी मिलकर आये थे | १९३७ मे ईस्ट लंडनके गरीब वस्तीके १५, आर्टीलरी पॅसेजमे एक ८० उमरके अजितसिंहके साथ रहने लगे | जिन देशोंमें जाकर उधमसिंहजीने सैनिकी अधिकारीयोंसे और भारतीय क्रांतीकारोंसे वार्तालाप किया था ,उन्हीसें बहूत नये ढंगके पिस्तूल भी लाये थे | लेकीन ८० उमरके अजितसिंह को भारी गुस्सा आया था लेकीन उसने उधमसिंहजीको अपना गुस्सा दिखाया नही | जब उधमसिंहजी कुछ कामके लिए बाहर गये थे, तो उसने उधमसिंहजीकी शस्त्रोंसे भरी हुई बॅगको टेम्स नदीमें फेंक दी और उधमसिंहजींको घर छोडनेको मजबूर किया |

फिर भी उधमसिंह विचलीत नही हुये | वह जगह उसने छोडी और दुसरे जगह रहने गये | वहाॅ महाराष्ट्रके पुने शहरसे प्रकाशित होनेवाले केसरीके वार्ताहार दत्तोपंत ताम्हणकरसे मिलना छुरू किया | कुछ दिनके बाद उधमसिंहजीने जिसको मारना था उस गव्हर्नसे भी दोस्ती की | कितना बडा साहस और कितनी बडी चलाखी ! जब जब उधमसिंहजी ओडवायरको मिलते थे, तब वह जरूर मनही मनमे बोलते रहे होगे, गव्हर्नर साहब, अब मैं तुम्हें खत्म करूंगा, तब  जमीन तुम्हारी होगी और सुरक्षा दल भी तुम्हारा होगा लेकीन इस बार पिस्तोल मेरा होगा और निशाना भी मेरा रहेगा | अब उधमसिंहजींने उँची कपडे परिधान करना छुरू किया | शिक्षा, पढाई करनेके उम्रमें नियतीद्वारा वंचीत रहे उधमसिंहजीने अबतक सफाईसे अंग्रेजी भी बोलना सिख लिया था | अपने ध्येयको साकार करनेके लिए उधमसिंहजींने अपने ध्येयको ही गुरू बनाया था | उधमसिंहजी हर रोज ओडवायरके घर चायपान करने लगे | ओडवायरने बातों बातोंमे जलीयानवाला बागके हत्यांकाडके समर्थनपर बातें भी कियी | ओडवायरको शक भी नही आया की वह उसके मौतके साथ दोस्ती करके बैठा था |

एक दिन ईस्ट इंडीया असोशियन ॲन्ड राॅयल एशिया सोसायटी द्वारा कॅक्सटन हाॅलमे एक सभाका आयोजन था | उस सभामें प्रमूख अतिथी लार्ड झेंटलंड और गव्हर्नर मायकल ओडवायर इन दोनोंको भाषण था | अब ओडवायरके खास दोस्त बने उधमसिंहजीको उस सभामे स्पेशल पास मिलना तो मामूली बात बनी थी | दिन था १३ मार्च १९४० | बस वही दिन मायकल ओडवायरका खात्मा करनेका उधमसिंहजीने अपना मन बनाया | दोपहरको ही उधमसिंहजीने एक नया सुट खरेदी किया, सिर पर फेल्ट हॅट, नया सुटमे रिव्हाल्वर, चार मॅगेझिनमें पचीस काडसूतें और यदि यह काममें न आये तो बडा चाकू पॅन्टमे डालके शामको चार बजे उधमसिंहजी उस कॅक्सटन हाॅलमे पहूचते है | मुख्य अतिथी लार्ड झेंटलंडका, लार्ड लॅमींग्टनके साथ सभागृहमे आगमन हुआ | तालीयोंसे उनका स्वागत हुआ और दोनो नेता मंचपर  बैठ गये | गव्हर्नर ओडवायर सभागृहके पहले रोके बाहे कोनेसे आखिर आसनपर बैठे थे | उधमसिंहजी ओडवायरसे थोडी दूरी पर थे | सभा छुरू हुई | सभा समाप्त हुई | लार्ड झेंटलंड, लार्ड लॅमींग्टन, मंचसे उतरे और पहले रो मे बैठें गव्हर्नर ओडवायरके पास आकर हस्तालांदोन करने लगे तब उधमसिह॔जीने पिस्तूल चलाया | एक के बाद एक ऐसे छ गोलीयाॅ ओडवायरपर चलायी | हाॅलमे अफरातफर हुई | श्रोता लोग हाॅलके बार निकलनेकी जल्दबाजी कर रहे थे | तब उधमसिंहके पिस्टोलसे निकली दो गोली गव्हर्नर ओडवायरके पीठमे घुसके सिधे बाहर निकली | वह जमीनपर गिरा और तात्काल नरकमे पहुच गया |  दो गोलीयाँ लार्ड झेंटलंडको लगी वे भी जमीनपर गिरे, एक गोलीसे लार्ड लॅमीन्गटनको और एक गोली  सर लूई डेनको लगी, दोनों एक हातसे अंपग बने | लार्ड झेटलंटको अस्पतालमे दाखिल कराया | क्या हो रहा है इस बातको, हाॅलसे बाहर निकलनेवाले श्रोताओंको समझनसे पहले उधमसिंहजी अपना काम पुरा करके हाॅलसे निकल पडे थे | सन 1909 मे स्वातंत्र्यवीर सावरकरके शिष्य मदनलाल डिंग्राजीने सर वायलीको जिस हाॅलमे मौतके घाट उतारा था, उसी हाॅलमे उधमसिंहजीने गव्हर्नर ओडवायरको खत्म करकर ब्रिटन जैसे महशक्तीको हिला दिया |

उधमसिंहजी हाॅलसे पर बाहर निकले और भागते रहे लेकीन चारों तरफसे पुलीसकी यंत्रणा काममे लगी थी |  आखिर वह गिरफ्तार हो गये | दुसरे दिन दुनियाभरमके सभी वृत्तपत्रमें उधमसिंहजीका साहस और पराक्रमकी वार्ता फ्रंट पेज पर छपी गयी | अमेरिकन लेखक अपने बर्लीन डायरीमे लिखते है की गांधीको छोडकर सभी हिंदी लोग ओडवायरका वध यह एक दैवी प्रतीशोध मानते होगे | '  जर्मन वृत्तपत्रने हेडलाईन दि ' हिंदी लोगोंपर अत्याचार करनेवाले नराधम सत्ताधीशका खात्मा |" 

बादमे इस घटनाका पुलीस पंचनामा तथा इन्क्वायरी हुई | सबूत एकठ्ठ होकर न्यायालयामे उधमसिहजीके खिलाफ दावा पेश हुआ और सुनावणी हो गयी | न्यायालयमने उधमसिंहजीको उनका निवेदन करनेको कहा तब उधमसिंहजीने न्यायालयमे कहा, " मै मौतसे कभी डर नही गया | जल्द ही मेरा फाँसीसे ब्याह होगा | इसका मुझे दुःख नही है , क्यों की मै मेरे मातृभूमीका एक सिपाई हूँ | ब्रिटीश सरकारने हमारे समाजबांधवोपर अमानुष अत्याचार किये है | अमृतसरमे जनरल डायरने निष्पाप बाल-बच्चे, माता-भगिनी, युवा बुजूर्गोंकी खुले आम कत्ल की है ,इसे मैंने मेरे आँखोंसे देखा है | जनरल डायरने गव्हर्नर ओडवायरके निर्देशसे यह हत्याकांड किया है | एकीस साल मेरे मनमे उस हत्याकांडसे प्रतिशोधकी आग लगी हुई थी | इसिलीए मैने ओडवायरका खात्मा किया | रौलट जैसे काला कानूनके खिलाफ आंदोलन करनेवालोंको उसने घसीटकर मारा, पिटा, जेलमें बंद करके खुले आम दशहत बिठानेकी कोशीश की थी | वह खूनका प्यासा था , एक शैतान था | इसी तरहसे उसको मौत आना जरूरी था | वह मेरा परम कर्तव्य था | यदि मै ओडवायरको खत्म न करता तो हिंदुस्थानपर एक दाग रह जाता | मेरे मातृभूमीके हितके लिए मुझे फाँसी होना इससे बडा आनंद किसमे मिल सकता है | "

न्यायालयने उधमसिंहजीपर लगे आरोपोंसंबंधी ब्रिटीश सरकारके तरफसे दिये हुये सबूतको स्विकार करके उधमसिंहजीको फाँसी की शिक्षा सुनाई | ' यह निर्णय सुनकर उधमसिंहजी थोडेसे भी विचलीत नही हुये | उल्टा उनके मुखपर एक समाधान की चमक दिखी | न्यायालयके निकाल के पुर्व उधमसिंहजीने 42 दिनका फास्टिंग किया था ' ऐसी जानकारी केसरी वृत्तपत्रके लंडनके वार्ताहार दत्तोपंत ताम्हाणेंने दियी | जहाँ मदनलाल डिंग्राजीको फाँसी दिया था उसी कारागृहमे उधमसिंहजीको 31 जूलै 1940 को फाँसी दिया गया | क्रान्तीवीर उधमसिंहजीको मेरे कोटी कोटी प्रणाम |

हर क्रान्तीकारके बलिदानके दिनपर हम उनके बलिदानका स्मरण करें तथा उनके जीवनगाथाका पारायण करे तो हमें सदाकाल प्रेरणा मिलती रहेगी, ऐसा विश्वास व्यक्त कर मै इस दिर्घ कथा-कथनको यहाँ विराम देता हूँ |

गुरुवार, २५ जुलै, २०१९

कर्नाटकातील सत्तेचा खेळ



परवा रात्री पर्यंत विश्वास दर्शक ठरावरील चर्चा सुरू राहिली.  शेवटी मतदान झाले, तेव्हा कर्नाटकातील काॅग्रेस-जेडीएसचे सरकार कोसळले हे दूरदर्शन वरून पाहीले. कर्नाटकात काॅग्रेस मागच्या दारातून पुन्हा सत्तेवर बसली होती तो भूतकाळ आठवला. वस्तूतः काॅग्रेसने जनादेश गमाविला होता. भाजपा सर्वात अधिक जागा जिकलेला पक्ष होता. त्याने सरकार बनविले पण काॅग्रेसने जेडीएसला मुख्यमंत्रीपद देऊन  सत्ता काबीज केली आणि सर्वात मोठा पक्ष भाजपा सत्तेच्या बाहेर फेकला गेला. जेडीएसला मुख्यमंत्री पदाची हाव होती, ती काॅग्रेसने पुरी केली. पण शेवटी काय झाले, सरकार पडले. त्यापेक्षा जेडीएसने भाजपा समवेत राहून आपल्या संख्याच्या प्रमाणात सत्ता वाटून घेतली असती तर आज ही वेळ आली नसती. पण शहाणपण नावाची अक्कल गौडा घराण्याकडे आहे कुठे? गौडा घराणे राजकारणात आहे, त्यांचे आपण सोडून देऊ, पण भाजपावर टिकेचा भडीमार करणार्या पुरोगामी संपादकांना अक्कल कधी येणार देव जाणो. आता ही ते या घटनेसंबंधी भाजपाला पाच वर्ष कसे झोडपता येईल अशीच कवायत करणार आहेत. 

काॅग्रेस व जेडीएसचे सरकार अस्तित्वात आल्यानंतर  एकादाचं मोदी-शहा ह्या जोडीला जमीनीवर लोळवले, अशी शेखी मिरवित विरोधी पक्षांनी आनंद व्यक्त केला.  त्यांच्या सोबत त्यांचे मिडीयातले चमचे होतेच.  तातडीने कर्नाटकात देशभरातील सार्या विरोधी पक्षांनी भली मोठी जाहीर सभा घेतली. मंचावरून विरोधी पक्षांच्या शिर्षस्थ नेत्यांनी एकमेकांच्या हातात हात घालून ते असे काही उंचाविले होते की त्यांना आकाश ठेंगणे वाटले असावे. त्यांचे जे एकीचे अभूतपुर्व दृश्य नजरेसमोर आले, त्या पाठीमागे चमचेगिरी करणार्या मिडीयाचे हात होतेच. काय ती मोठी रॅली अहाहा ! काय ती मोठी नैतिकाता ! काय तो रूबाब! काय ते जनतेला भावलेले विरोधी पक्षांच्या ऐक्याचे  विलोभनीय दर्शन ! सार्या विरोधी पक्षांच्या कार्यकर्त्यांनांही हत्तीचे बळ आले होते. सोशल मिडीयावरून भाजपा कार्यकर्त्यांचे असे काही खच्चीकरण करीत होते, की त्यांच्या नेत्यांपेक्षां ह्यानांच राजकारण अधिक कळत असावे असे वाटले. पाठोपाठ तीन राज्यातील भाजपाची सत्ता गेली. मग काय, दिल्लीतून भाजपाची गच्छन्ती झालीच समजा, अशी भाषा सुरू झाली. आम्ही निवडून आल्यावर आमचा पंतप्रधान सामापोचराने ठरवू असे ठासून विरोधी पक्ष नेते सांगत होते. त्यांच्यापैकी साधारणपणे सात आठ जणांना आपण पंतप्रधान होऊ अशी आशा ही वाटली होती. पण त्यांच्यापैकी एकानेही लोकसभेची निवडणूक लढविली नव्हती. त्यावरून पुढे काय होणार हे त्यांना प्रचार सुरू झाला तेव्हाच कळले असावे, पण आपल्या कार्यकर्त्यांना आशेवरच जगवावे लागते ना ! म्हणून शेवटपर्यंत आपल्या कार्यकर्त्यांना प्रोत्साहन देत राहीले. पुढे काय झाले ते सांगावयाची गरज नाही. फक्त एक सत्य सांगावेसे वाटते ते हे की दुःख अतिव झाले ते विरोधी पक्षांच्या कार्यकर्त्यांनाच. घराणेशाही असलेल्या पक्षांच्या कार्यकर्त्यांनी हे लक्षात ठेवावयास हवे की त्यांच्या नेत्यांना व त्यांच्या कुटूंबियांना फारसे दुःख होत नाही. ह्याचे कारण त्यांचे आपआपल्या पक्षावरील नियंत्रण यत्किंचीत कमी झालेले नसते. साहेब व साहेबांची मुले म्हणून मिरवता येणे ह्यात खंड पडत नसतो.

कर्नाटकांतील गेल्या वर्षाच्या विधानसभाच्या निवडणूक निकाला नंतर तेथील राज्यपालाने संसदीय प्रथेनुसार भाजपाला सत्ता स्थापण्याची संधी दिली. भाजपाने सत्ता स्थापन केली पण घोडा बाजार करू शकली नाही. म्हणून येडुरप्पाने विश्वासदर्शक ठराव मांडण्याअगोदरच राजीनामा दिला. नंतर जेडीएसला मुख्यमंत्रीपद देऊन काॅग्रेस स्वतः पाठीमागच्या दाराने सत्तेवर आली. त्यावेळी भाजपाची कशी जिरविली असा आनंद व्यक्त करीत राहूल गांधींच्या राजकारणला दाद द्यावी अशी भाषा राजकीय अभ्यासक आणि काही संपादक मंडळीनी केली. कर्नाटकातील मंत्र्यांने राजीनामे दिले ही घटना कर्नाटक सरकारात सामील झालेल्या दोन पक्षांतील अंतर्गत मामला आहे. आपले आमदार आपल्या नियंत्रणात राहीले नाहीत यासाठी काॅग्रेस आणि जेडीयुचे सर्वोच्च नेते कमी पडले आहेत हे सत्य नाकारून भाजपा लोकशाही संपुष्टात आणत आहे अशी ह्या मंडळीनी ओरड सुरू केली. आता तर काॅग्रेस-जेडीएसचे सरकार पडले आहे. तरी ही संपादक मंडळी व विचारवंत नैतिकेचा आव आणत भाजपावरील टिका तीव्र करतील. पुन्हा नव्याने भाजपा व संघाचा राष्ट्रवाद कसा आक्रमक ह्या विषयावर सारे विरोधी पक्ष व त्यांचे मिडीयातील हस्तक व विचारवंत टाॅक शो सुरू करतील. वस्तुस्थिती अशी आहे की, पुरोगामी विचारांचा मक्ता आमच्याकडेच आहे आणि आम्ही म्हणू तोच पुरोगामी विचार असा हट्ट स्वातंत्र्या पासून ही मंडळी धरून आहेत. पण ह्यांचे म्हणणे सर्वसामान्य जनता आता गांभीर्याने घेत नाही हे लोकसभेच्या निवडणूक निकालानंतर स्पष्ट झाले आहे.

वस्तूतः लोकसभेच्या निवडणूकीत ज्या पक्षांची दाणादाण उडाली आहे, त्या पक्षांच्या राज्यातील सरकारनेही जनतेचा विश्वास गमाविला आहे, असे मानून भाजपाचे केंद्रातील सरकार घटनेतील कलम ३५६ वापरून विरोधी पक्षांचे सरकार बरखास्त करू शकते. २०१४ च्या  लोकसभेच्या निवडणूकीतील विजया नंतर मोदी सरकारने विरोधी पक्षांचे राज्यातींल सरकार बरखास्त केले नाहीत. अलिकडे बंगाल मधील ममता बॅनर्जीने इतका थयथयाट केला तरी तिथले सरकार बरखास्त केले नाही.  आंध्र प्रदेशच्या चंद्राबाबू नायडूने मोठा आकडतांडव केला, पण त्यांनाही काही महत्व दिले नाही. ह्या दोन्ही नेत्यांनी जो काय तमाशा केला तो केवळ मोदी सरकारला ३५६ कलम वापरण्यासाठी उत्तेजीत करावे ह्या साठीच होता.  पण मोदी सरकारने त्यांना शहीद होण्याची संधी दिली नाही. तरीही भाजपाने लोकशाहीचा गळा घोटावयास सुरूवात केली आहे असा आरोप विरोधी पक्ष करणार आहेतच. ह्या सगळ्या बाबी निव्वळ राजकीय स्वरूपाच्या आहेत. जगभरातील प्रत्येक देशात राजकारण हे शह-कटशहाने भरलेले असते. त्यामूळे त्यावर फारसे न बोललेलं बरं ! 

मूळ मुद्दा हा आहे, राजकारणातील घोडा- बाजार संपणार कधी? माझे मत असे आहे की भाजपाने कर्नाटकात सतेवर बसू नये. त्याऐवजी तात्पूरती राष्ट्रपती राजवट आणावी वा राज्यापालाने विधानसभा भंग करून पुन्हा निवडणूकीचा मार्ग स्विकारावा. परंतु भाजपा तसे करेल की नाही अशी खात्री देता येत नाही. ह्यात गोम अशी आहे की, भाजपाने जर सरकार स्थापन न केले आणि तसे जाहीर केले तर, पुन्हा काॅग्रेस जेडीएस एकत्र येणार नाहीत असे ठामपणे म्हणता येत नाही. मग दारात सत्ता येत असेल, वा आणली असेल तर ती लाथाडावी तरी कशी हा प्रश्न भाजपा समोर आहेच की. राजकारण हे बेरजेचेही असते, व वजाबाकीचे ही असते. एका पक्षातील सदस्यांची वजाबाकी झाली की दुसरीकडे बेरीज होणार.  Debit what comes in and Credit what goes out. हे व्यवहारातले सुत्र. राजकारण हा झाला आहे व्यवसाय, मग त्याला ही व्यवहारातले नियम लागू होणारच की.

दुसरा प्रश्न, विरोधी पक्षांची मानसिकता कशी आणि केव्हा बदलेल हा आहे. लोकसभेच्या निवडणूकीत लोगोपाठ दोनदा सपशेल पराभवानंतर विरोधी पक्षांना शहाणपण का येत नाही हे कळेनासे झाले आहे. आजकाल विरोधी पक्षांचे नेते भाजपात जात आहेत ह्यावरही इतर पक्ष भाजपालाच जबाबदार मानतात. बहूतांश विरोधी पक्षांची नेतेमंडळी राज्य स्तरावर वा केंद्र स्तरावर सतत सत्तेत राहीली आहे. ही मंडळी सत्तेशिवाय राहू शकत नाहीत. ह्याचे कारण सत्तेची चव. सत्तेची चव मादक असते. ती चव मिळेनासी झाली की अस्वस्थता येत असावी. बहूतांश विरोधी पक्षांच्या नेत्यांनी राजकारण हा आपल्या खानदानाचा व्यवसाय मानला. त्यामूळे ह्या सर्वांची मूलं-मूली, सुना, पुतणे भाचे, जावई, नातवंडे -पोतवंडे सरकारी महलात जन्माला आलेली आहेत. त्यांचे काय, ही चिंता विरोधी पक्षांच्या नेत्यांना भेडसावत आहे. प्रादेशिक पक्षांची स्थिती ह्याहून भिन्न नाही. डाव्याची खोड अशी आहे की ते देव, धर्म काही मानत नाहीत, तरीही हिंदू धर्मियांचे खच्चीकरण करावयाचे पण दुसर्या बाजूला ख्रिस्ती आणि मुस्लीम धर्जणी भूमिका सोडावयाची नाही असे त्यांचे आज पर्यंतचे धोरण. नामशेष होण्याच्या मार्गावर आहेत. सुंभ जळाले तरी पीळ जात नाही असे म्हणतात  ना, तशी डाव्या पक्षांची अवस्था आहे. इतर विरोधी पक्ष जे भाजपाला विरोध करतात त्यांचा सर्वधर्मसमभाव हा डाव्या पक्षासारखाच आहे. त्यामूळे ते ही गटागंळ्या खात आहेत. ही सारी मंडळी सतत संघ -भाजपाला पाण्यात पाहायची सवय मोडणार कधी ? दोन लोकसभेच्या निवडणूकीत सपाटून मार खाल्ला आहे तरी सुधारणा करणार नसतील तर २०२४ सालच्या निवडणूकीतले भविष्य काही महीन्यातच दिसू लागेल.

भारतीय जनतेला आज खराखूरा, सर्वधर्म समभाव  हवा आहे. देशाचे नेतृत्व कणखर नेत्यांकडेच असावे अशी सर्वसामान्यांची भावना आहे.  जनसामान्यांच्या समस्याची जाण सरकारला असावी, लोकांना भ्रष्ट राजकीय नेते नकोसे झाले आहेत मग ते कुठल्याही पक्षाचे का असेना ! दशहतवाद, नक्षलवाद, तसेच परकीय पैशातून कार्यरत असलेल्या एनजीओंच्या कृष्णकृत्यांचा समूळ नायनाट हवा आहे. राष्ट्रीय सुरक्षेबाबत कुठलाही गाफीलपणा नको. ज्याच्यांवर भ्रष्टाचारांचा आरोप आहे व त्यासंबंधीतले  जितके खटले आहेत ते लौकरात लौकर निकाली लागून त्यांना लोकशाहीत शिक्षा होते असे मतदारांना दिसायला हवे. सरकार देशाच्या सर्वांगिण विकासाचा( शेती, उद्योग, उर्जा, जल, इत्यादी क्षेत्रातील) ध्यास घेऊन काम करणारे असावे, आणि त्यातून आश्वासन दिल्याप्रमाणे रोजगार निर्माण व्हावयास हवा अशी सर्वसामान्यांची इच्छा आहे. जर विद्यमान केंद्र सरकार वरील समस्यांची समाधानकारक सोडवणूक करेल, तरच ते पुन्हा २०२४ साली सत्तेवर येऊ शकेल, अन्यथा काॅग्रेस आघाडी सरकारला जो धडा मतदारांनी दिला तसा मोदी सरकारलाही देतील हे निश्चीत. पण त्यासाठी वर नमूद केलेल्या समस्यांपैकी सर्वधर्म समभाव, राष्ट्रीय सुरक्षा, दशहतवाद, नक्षलवाद, इत्यादी संबंधी भाजपाचे धोरण आम जनतेला पसंत पडलेले दिसते ही वस्तुस्थिती विरोधी पक्षांनी मान्य करावयास हवी व त्यानुसार आपला व्यवहार लोकांच्या पंसतीस उतरेल असा करावयास हवा ना ! नाही तर आहे, आपलं पुन्हा 
' येरे माझ्या मागल्या ! '

गुरुवार, १८ जुलै, २०१९

गुरूपौर्णिमा उत्सव


परसो आषाढ पौर्णिमाका दिन था | इसे व्यास पौर्णिमा तथा गुरू पौर्णिमा भी कहा जाता है | अपने देशके सभी प्रांतमे गुरूपौर्णिमा उत्सव मनाया गया |  विख्यात महाकवी कालीदासजीने कहा है कि,  उत्सव प्रियः खलू मनुष्यः|  उत्सव प्रिय होना यह मानवकी स्वाभाविक प्रवृत्ती  है | दुनियाके सभी देशोंमे अपने अपने संस्कृती, तथा धार्मिक श्रद्धाके नुसार उत्सव मनाये जाते है और स्वाभाविकतः उत्सवमें भिन्नता रहती है | लेकीन ऐसी भिन्नता होनेके बावजूद दुनियामे एक उत्सव ऐसा है जिसका तत्व सभी देशोमें समान है और वह हैं , गुरू-शिष्य परंपरा | इसिलीए साॅक्रेटीस-प्लेटो, प्लेटो-ऑरिस्टेटल, मार्क- लेलिन, इब्सेन-शाॅ, वसिष्ठ-श्रीराम, सांदिपनी- श्रीकृष्ण, याज्ञवल्क्य-जनक, जनक-शुक्रचार्य, रामकृष्णपरमहंस -विवेकानंद, रामानंद-कबीर, समर्थ रामदास-शिवाजी ऐसे महान गुरू-शिष्योंकी दुगल दुनियाके इतिहासमें मौजूद है | हमारे लिए गौरवकी बात यह है की,  'यह गुरू-शिष्य परंपरा ' का जनकत्व हिंदू संस्कृतीके पास है | ब्रिटीश कालमे अपने देशमे व्हाॅईसराय रहे लार्ड कर्झनने एक समारोहमें कहा है " जब इंगलीश लोग जंगलमें रहते थे तब भारतमे गुरूकूलके रूपमे शिक्षा व्यवस्था थी | डाॅ ॲनी बेंझट ने कहा है की,  दुनियाके सभी देशोंने हिंदू संस्कृतीको जननी समझे तो दुनियामें सहिष्णूता और भाईचारका माहोल रह सकता है | दुनियाके मशहूर इतिहास तज्ञ विल ड्युरांट कहते है की, '' मनकी विशुध्दता, परिपक्वता, और व्यापकता इन तीनों मुल्योंका संगम बनाकर सहिष्णूताका पालन कैसा करना है, यह सिर्फ भारत देश और उसकी  प्राचीन संस्कृतीसे सिखनेको मिलता है|  हिंदू संस्कृती दुनियाकी सबसे प्राचीन है यह सत्य अन्य पाश्चीमात्य तथा पौर्वात्य विचारवंतोंने मान्य किया है |
 
अब हम गुरू-शिष्य परंपराको उत्सवका स्वरूप कब आया इसपर चर्चा करेंगे | इसका उत्तर एक सवालमे छुपा हुआ है और वह सवाल है, " आषाढी पौर्णिमाको व्यास पौर्णिमा क्यो कहलाया जाता है ?" वैदिक कालमें हमारे यहाॅ गुरूकूल थे | हिंदू संस्कृतीका ज्ञान भांडार यह गुरू-शिष्य संवादोंसेही मिला है | अनेक ऋषीमुनीयोंने अपनी तपस्यासे सृष्टीमें छिपे हुये शाश्वत सिद्धांतोकी खोज कियी है, और मानव जातीको, ऋचा, स्मृती, श्रुती, आरण्यकें जैसे माध्यमोंसे ( वैदिक कालकी मिडीया) सुसंस्कृत बनाया | महर्षी व्यासने सभी ऋषियोंने रचाया हुआ ज्ञान भांडारका संकलन करके संस्कृतिका एक ज्ञानकोष दिया उसिका नाम है महाभारत | भगवान श्रीकृष्ण    गीताके विभूती योगमे कहते  है, ' मुनीनामप्यहम व्यासः |'  व्यक्तीका मोक्ष और समाजका उद्धार इन दोनों आदर्शपर व्यासमूनीने अभेद दृष्टीसे 
देखा | अभ्युदय और निःश्रेयस इन दोनोंका समन्वय करके विविध ग्रंथ रचना कियी है | मानवी जीवन ना सिर्फ प्रकाशका है, ना सिर्फ अंधकारका है | वह साया और प्रकाशका आँख-मिचौलीका एक खेल है | जो सृजन होती है वह सृष्टी है, और इस सृष्टीको सृजन करनेका दायित्व मानवजातीपर है | इस सिद्धांतका जनकत्व व्यासमूनीके  पास जाता है | इसिलीए उनको मानवी जीवनका अलौकीक भाष्यकार माना गया है | महर्षी व्यासमूनीका अध्यात्मिक और व्यावहारीक ज्ञान इतना प्रभावशाली रहा की ' व्यासोच्छिष्टम जगत ' ऐसी एक उक्ती प्रचलित हुई | मानव जन्म का प्रयोजन तथा सार्थकता किसमे है,  इसका जबाब व्यासमूनीने सिर्फ दो वचनोमें बताया दिया है | दो वचन ऐसे है-
          ' परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम् | ' 

व्यासमूनीके पश्चात उनके शिष्यगणोंने सोचा की अपने गुरूके कार्यको जिंदा रखना चाहीये | तब संस्कृतीका प्रसार तथा रक्षण करनेका कोई भी अच्छा उपक्रम हो तो उसे ' व्यास ' ऐसी संज्ञा दि गयी और जिस मंचसे ऐसा कार्य होगा उस मंचको ' व्यासपीठ ' ऐसी संज्ञा दी गयी | उसी दिनसे ही महर्षी व्यासमूनीके शिष्यगणोंने अपने गुरूकी पुजा छुरू की और  कुछ धन और वस्तू समर्पित किये | तभीसे इस पौर्णिमाको व्यास पौर्णिमा और गुरूपौर्णिमा का नाम प्राप्त हुआ | धीरे धीरे  भारत देशके हर कोनेमे गुरू पौर्णिमा  एक पवित्र उत्सव मनाया जा रहा, वह आजतक छूरू है |

मानव जातीका विकास गुरू-शिष्य परंपरासे ही हुआ है, इसमे कोई दुसरी राय नही है | पहले जनरेशनसे सिखते, सिखते अपना विकास करके जीवनको उन्नत करना, यह मानवकी सहज प्रवृत्ती है | पशु-पंछी तथा और प्राणी-जीवमे गुरू-शिष्य परंपरा नही है, क्योंकी उनका जीवन सिर्फ सामूहीक है, पर मानवका जीवन सामाजिक है | आज ज्ञान-विज्ञानका इतना विस्तार हुआ है, की हर क्षेत्रमें गुरूकी जरूरत पडती है, इसिलीए गुरूपूजन उत्सवका भी विस्तार हुआ दिखता है | बदलते युगमे नई सुविधा एक असुविधाको ही साथमे लेके आती है,  यह अपना अनुभव है | इसिलीए समाज व्यवस्थामे जीवनमूल्योंकी रक्षा करनेकी लिए एक समातंर व्यवस्था बनायी गयी है, उसीका नाम है गुरू-शिष्य परंपरा है | गुरूके प्रती कृतज्ञता व्यक्त करना, यह एक कर्मकांड न हो, इसिलीए समर्पित भावको जगानेके लिए समर्पणको इस गुरूपूजनको जोड दिया है | इसिलीए  गुरू-शिष्य परंपराका स्थान मानवी जीवनमे  सबसे उँचा रहा है | गुरू सिर्फ व्यक्ती हो ऐसा नियम नही है | चराचर सृष्टीमे ईश्वर विराजमान है, इसिलीए सृष्टीमे समाये हुये चल-अचल वस्तुयोंसे भी प्रेरणा मिलती है और उनको  गुरू मानना यह भी एक स्वाभाविक प्रवृत्ती समझा जाता  है | वैसा देखा जाय तो हमारे संस्कृतीमें जो प्रतिकें है, जैसे की कलश, श्रीफळ, कमल, स्वस्तिक दीप, भगवा ध्वज, इनसे भी हमें प्रेरणा मिलती है | निसर्गको ही गुरू माननेकी हमारी संस्कृती है | नदी, वृक्ष-वेली, धरती, सागर, वायु आसमान, सूर्य, आदि पंचमहाभूतें, यह भी मानवके गुरू है | हिंदू समाजके आद्यगुरू श्री दत्तात्रेयस्वामीने निसर्गसेही चोवीस गुरूके चरण छुयें और खुद गुरूस्थानपर विराजमान हुये है | भगवान बुद्ध, भगवान वर्धमान महावीर, गुरू नानक, इन्होनें ही सृष्टीसे ही ज्ञान प्राप्त प्राप्त किया है | आज अपने देशमे अध्यात्मिक गुरूके मठ याँ आश्रममें संस्कारक्षम प्रार्थना होती है, प्रवचन होते है , प्रबोधनके अन्य कार्यक्रमका समय समय पर आयोजन होता है | इससे समाजमे आयी हुई सुस्ती मिटायी जाती है | दत्त सांप्रदाय हो याँ शाक्त सांप्रदाय हो, शीख हो याँ शिव- वैष्णव हो,  जैन हो याँ  बुद्ध हो ,  इन सभी समाजके घटक अपने अपने गुरू-शिष्य परंपराके माध्यमोंसे आजही अन्नदान, रूग्ण शुषुश्रा, दवायें, शिक्षा, रक्तदान, नेत्रदान, वृक्षारोपण, ऐसे अन्य सेवा प्रकल्प चलाते है | परोपकारका  सिधा और साधा अर्थ यह है, कि समाजके कोई भी बांधवको आपत्तीमे मदद करना है | दान और सेवा यह दो सर्वश्रेष्ठ जीवनमूल्यें है |

सेवा परमो धर्मः यह ब्रीदकी दिक्षा लेनेकी क्षमता कब बढती  है ? सामान्यतः कोई भी आदमी अगर उसपर जन्मतः अच्छे संस्कार नही हुये हो तो सहज सरलतासे अच्छा बनने लिए आगे आता नही, आदमीको अच्छा बनाना पडता है | क्योंकी त्यागकी प्रवृत्ती उपभोगता इतनी स्वाभाविक याँ प्राकृतिक नही होती है | इस बारेंमे अधिक स्पष्ट रूपसे जानना है तो गायत्री उपासक वेदमूर्ती स कृ देवधर  इनका " गायत्री मंत्र आणि उपासना " यह किताबको पढना जरूरी है | देवधरजी अपने किताबमे कहते है, की " मन शरीरमे है, लेकीन कोई शस्त्रवैद्य (सर्जन) शरीरका हर भागको फाडके देखे तो भी मन नामकी चीज शरीरमे मिलती नही है | इतना सुक्ष्म इस मनको मानवी जीव जब अर्भकावस्थामें रहता तभीसे उसपर संस्कार हो तो मन सक्षम और संस्कारशील बनता है | " इसका अर्थ यही है की मनुष्यकी शिक्षा, पढाई गर्भवास्थामे छुरू होती है | गुरूकी आवश्यकता जन्मसे पहलेही छुरू होती है और यह आवश्यकता जिंदगीके अंतिम यात्रतक रहती है | स्वामी विवेकानंद कहते है, " यदी कोई इंसान यह कह दे की,  बस हो गया ;अभी जिंदगीमे कुछ सिखनेकी जरूरत नही है |तब समझ लो की वह इंसान बुढा हो गया |" इससे यह स्पष्ट होता है की स्वामीजी हमें जिदंगीके अंतिम श्वासतक सिखते रहनेकी सलाह देते है और उसके लिए हमें गुरूके सानिध्यमे रहना ही है | वह स्वयं रामकृष्ण परमंहसके शिष्य रहे है | हमारे शास्त्रकार कहते है की गुरूके सानिध्यमें हमारा आचरणमे सुधार आता है | " आचारः प्रभवो धर्मः | " इसी तरह " आचारः प्रथमो धर्मः | " यह भी स्पष्ट रूपसे कहा है | जिसे अंतिम ध्येयसिद्धी तक पहूँचना है, उसे पहला आचरण सुधारना होगा |  साधा अर्थ है, मनको अच्छी आदतसे जोडना है | उसके लिए मनको लगाम लगानेके लिए बुद्धी का उपयोग करना है और वह काम गुरूके सहवाससे होगा | अपने आचरणको सही दिशा देनेका काम गुरू अपनेसे कराके लेता है | उसे  गुरू-शिष्य परंपरामे दिक्षा ऐसा नाम है | बादमे धीरे धीरे मनमें संयम बढता है,  संयमसे सद्भभाव निर्माण होता है और सद्वभावसे अंदरका समर्पित भाव ऊँचाईके तरफ जानेकी प्रक्रीया छुरू होती है | उसी पथपर अंतमे ' सेवाः परमो धर्म " इस ब्रीदकी अनुभूती होकर फलासक्ती बिना सामाजिक समरसताका कार्य युहीं अपने हातसे होते है | 

भगवान रामकृष्ण परमंहस अपने शिष्यगणोंके साथ बातो-बातोंमे कहते है की हमे कमल फूल जैसे खिलना चाहीये | शिष्यगण पुछते है कमलके जैसे खिलना कैसा शक्य हो जाता है ? तब परमंहसजी कहते है, " कमल रातदिन खिचडमे संघर्ष करता है | सुरजके तरफ देखके खिलनेका प्रयत्न करता है | उसकी साधना अंखड छुरू रहती है | उसमे वह खुदके खिलना भी भूल जाता है | वह फलको भूल जाता है | ठंडी, गर्मी, बारीस, खिचड इसमे रहकर संघर्ष जारी रखता है और एक दिन सुबह सुरजका प्रकाश उसे स्पर्श करता है , पवन उसे झुलाता है, वृक्षवेलीपर बैठे पंछी अपना सुर लगाते है, इसमे कमल खूद खिला है यह भी भूल जाता है | मैं खिला हूँ, मैं सुगंधसे भरा हूँ, मै आकर्षक बना हूँ, मुझमें मधूर मकरंद भरा हुआ है, यह सब भूल जाता है और अकस्मात एक भूंगा गुं गुं करके कमलके आसपास प्रदक्षिणा डालकर अंदर घुसता है, और भूंगा कमलको कहता है,  " व्वा, कमल, तेरी कमाल है, तु पवित्र है, क्या तेरा रूप है, क्या तेरा रंग, क्या सुगंध है, कितना मधूर रस है !" '  शिष्य भी कैसा हो, कमल जैसा ! निष्काम कर्मयोगी हो ! कमल जैसा ! धौम्य ऋषीके आरूणी नामके शिष्य जैसा !

मित्र हो, अपना देश वाल्मीकी, कृष्णद्वैपायन व्यास , शुक, गोतम बुद्ध, वर्धमान महावीर,  गुरूनानक,  शंकराचार्य जैसी महान गुरूओंका है, उसी तरह  नचिकेता, आरूणी, एकलव्य, अर्जून, कौत्स, विवेकानंद जैसे शिष्योंत्तमका है | शिष्योंने अच्छा शिष्य बननेका प्रयास करें और गुरूजनोंने महान गुरूवर्योंकी  वसीहतको अच्छी तरह निभानेका प्रयत्न करें, तो धिरे, धिरे, अपना देश विश्वगुरूके स्थानपर विराजमान होगा | इस विश्वासके साथ गुरू पौर्णिमा पर चली हुई इस चर्चाको मै यहाँ विराम देता हूँ |

शनिवार, ६ जुलै, २०१९

संजीवनी विद्या आणि आपण



संजीवनी ही एक विद्या आहे. शब्दशः अर्थ मृत्यु पावलेल्या माणसाला पुन्हा जिवंत करण्याची विद्या. असूरांचे गुरू शुक्राचार्य ह्या विद्येचे जनक समजले जातात. ह्यापेक्षा अधिक काही ह्या संजीवनी विद्ये संबंधी मला ठाऊक नाही. नालासोपारा (प ) येथे 'संजीवनी परिवार' नावाची एक समाजसेवी संस्था गेली अनेक वर्षे खंड न पाडता अनेक लोकोपयोगी कामें करीत आहे. आपल्या देशात शहरी, निमशहरी व ग्रामीण भागात अनेक स्वयंसेवी संघटना आहेत. अशा संस्थाच्या कार्यांत  संजीवनी विद्या आहे असे मला सतत वाटत आले आहे आणि त्यांच्या कार्यासंबंधी  व्यक्त व्हावे असे प्रकर्षाने मला जाणवत होते. संजीवनी परिवार नालासोपारा (प) ही संस्था माझ्या परिवारातील आहे, माझ्या गावातील आहे. प्रत्येक कार्यक्रमासाठी  संजीवनी परिवारातले कार्यकर्ते मला आग्रहाचे आमंत्रण देत असतात. ती संस्था येत्या रविवारी ७ जूलै ला आपल्या वृक्षरोहणाच्या मोहीमेचा चौदावा वाढदिवस साजरा करीत आहे. परिवाराचा एक आगळा वेगळा वाढदिवस. नालासोपारा (प )निर्मळ स्थित श्रीमत् आद्य शंकराचार्य मंदिराचा परिसर आज संजीवनी वनराई म्हणून ओळखला जातो. त्या निमित्ताने ब्लाॅगवर एक लेख संजीवनी विद्या नावाच्या देवतेच्या चरणी वाहावा असे वाटले म्हणून हा लेख प्रपंच.

संजीवनी म्हणजे 'मृत्युने कवटाळलेल्या माणसास जीवंत करण्याची विद्या' ही वैदिक काळातील. 'जीवदान देणारी विद्या' ही आजच्या युगातील संजीवनी. कुठले ही लोकोपयोगी कार्य आपल्या जीवनाचे  व्रत आहे असे समजून  कोणी व्यक्ती, वा संस्था खंड न पडता दरवर्षी करीत असेल तर ते कार्य 'कार्यक्रम ' म्हणून राहात नाही. त्या कार्यक्रमाचे रूपातंर मोहीमेत होत असते. त्यातही ते वृक्षारोहणाचे कार्य. हवेतील प्रदुषण दूर करून सृष्टीतील जीवनास आवश्यक असणार्या ऑक्सीजनचा साठा वाढविण्याचे कार्य. अनियमीत आणि बेभरवशाचा झालेल्या पावसाळ्याला नियमित आणण्याचे हे कार्य. पाणी म्हणजेच जीवन. शुध्द हवा आणि पाणी ह्याचा पुरवठा वाढविणे ह्या नवसंजीवनी विद्या आहेत. मागे Whatsapp वर एक पोस्ट आली होती. ती अशी आहे, " The most precious thing u can give some one is the gift of ur time and attention ." ह्या पोस्ट वरून मी सेवाभाव आणि कर्मयोग असा एक सविस्तर लेख लिहीला आहे. त्यात मी जे म्हटले आहे, ते थोडक्या शब्दात मांडतो. "वृक्षारोपण, नद्या स्वच्छ ठेवणे, संयमित जीवनशैली ठेवणे, वन्य प्राण्यांची शिकार न करणे, पशू- पक्षांच्या स्वैर विहारावर प्रतिबंद न लावणे, इत्यादी कार्ये म्हणजे निसर्गाप्रती वाहलेली कृतज्ञता होय. एका परिने आपण आपल्या धरणीमातेला दिलेली Precious gift of time and attention होय." धरणीमातेच्या उपकाराची परतफेड करण्याचे आपल्याला जमत नसेल तर ते ही एक वेळ चालू शकते पण निसर्गाची हानी का करावी? निसर्गाने निर्माण केलेले आपले मन निसर्गाच्या परिसरात अत्यंत प्रभावी बनते त्यामूळे ते स्थिर होते. स्थिर मनाची शक्ती अवाढव्य असते. ऋषीमूनी, तत्ववेत्ते, शास्त्रज्ञ, साहित्यिक  इत्यादींनी शाश्वत सत्ये शोधली, महाकाव्ये लिहीली ती निसर्गाच्या सानिध्यात राहूनच.  ह्या मंडळींचे मानव जातीवर अनंत उपकार आहेत.
आपल्या विज्ञान निबंधात स्वातंत्र्यवीर सावरकरांनी तर निसर्गाला देवाची उमपा  दिली आहे. गायित्री उपासक स. कृ. देवधर म्हणतात, "उपजे तें नाशे  हे विश्वाचे जीवनसूत्र असले तरी अविनाशी अवस्थेशी एकरूपता साधण्यामध्ये मानवी जीवनाचा खरा परमोच्च बिंदू आहे. निसर्ग हा प्राणीमात्रांचा मित्र आहे. मानवाखेरीज इतर पशू पक्षी सर्वस्वी निसर्गाच्या सानिध्यात राहातात त्यामूळे त्यांच्यात निरोगिता अधिक असते. निसर्गाच्या विरूध्द जाऊन मनुष्य जेव्हा जगण्याचा प्रयत्न करतो तेव्हा त्याचे मन दुबळे बनते."  शरीर विज्ञानाचेही असेच मत आहे. वस्तूतः निसर्गामध्ये प्राणीजीवन समतोल राखण्याचे उपजत सामर्थ्य आहे. आपणच नाही तिथे आपले नाक खुपसले आहे.

विख्यात विचारवंत बर्टाड रसेलने एका ठिकाणी म्हटले आहे, "मानवाचा मुलभूत विकास झाल्याशिवाय वैज्ञानिक प्रगती त्याच्या पचनी पडणार नाही." आपले महात्मा गांधीजी म्हणत असत की "आपली धरणीमाता आपल्या सर्वांच्या गरजा भागवू शकते पण आपली लालसा नव्हे." आज प्रदुषणाचा भस्मासूर जगाला विळखा घालत असताना दिसतो. हे आपणहून आणलेले आपले मरण होय. अशा वेळी स्वयंसेवी संघटना जे काही कार्य करीत आहेत त्या सार्या एका परिने संजीवनी विद्याच आहेत.  देवाची व्याख्या अनंत आहे, कारण तो चराचरात व्यापलेला आहे. जे चांगले, जे हितकारक, जे कल्याणप्रद, ते सारे देव असे आपण म्हणतो. त्या अर्थाने ' जीवदानाची ' ही संजीवनी विद्या सुद्धा चराचरात सामावलेली आहे. भगवंताने गीतेत म्हटले आहे (' ईश्वरः सर्व भूतानां हृदेशेऽर्जन तिष्ठती | ') सर्व प्राणीमात्रांच्या हृदयात मी स्थिर असतो. त्या अर्थी जीवदानाच्या विद्या आपल्यातही आहेत. जी व्यक्ती,   संस्था, समाज,  देश जाणीवपुर्वक ती शोधेल त्यांना हि विद्या गवसणार. शेवटी मानवाने जी प्रगती केली त्यासंबंधीचा इतिहास आपल्याला ह्या पेक्षा वेगळे काही सांगत नाही. जे काही विज्ञानाने शोधले ते ह्या विश्वातीलच ना ! पण बर्टाड रसेल ह्यांनी दिलेला धोक्याचा इशारावर आपण दुर्लक्ष केले. आपण निसर्गाला ओरबाडले. Global Warming ची चर्चा सुरू झाली आहे खरी पण चंगळवाद, ऐशबाजी, शस्त्रात्रे आणि साम्राज्यवादाची भूक शमलेली दिसतेय कुठे? त्यामूळे जीवदाना संबंधीच्या नाना तर्हेच्या विद्यांचा प्रसार करण्यासाठी स्वयंसेवी संघटना आज पुढे येत आहेत. ही एक केवळ समाधानाची बाब नसून ती आजच्या युगातील मानवाकडे असलेली सर्वात महत्वाची शक्ती आहे असे मला वाटते.

स्वयंसेवी संघटनामुळेच आजच्या युगात विभिन्न संजीवनी विद्यांची आपल्याला ओळख होऊ लागली, आणि ती केवळ वृक्षरोपणापुरता सिमीत नाही. शिक्षणाचा प्रसार सर्वत्र झाला आहे; सर्वत्र संशोधन, तत्रंज्ञानात अपूर्व क्रान्ती होत असलेली आपण पाहातो. पण जोडीला महासंहारक शस्त्रेही तयार होत आहेत.  मुल्याधिष्ठीत शिक्षणाकडे दुर्लक्ष होत आहे. मानव म्हणजे पशूत्व आणि देवत्व ह्यामधील जीवप्राणी आहे. आपल्या ठायी केवळ पाशवी शक्तीच विराजमान आहेत असे नाही. दैवी शक्ती ही आपल्यापाशी आहेत. त्याचेंच प्रगट रूप म्हणजे संजीवनी विद्या. त्यातील वृक्षरोपणासंबंधी आपण चर्चा वरती केली आहे. ते कार्य महान आहे तरी लेखाच्या विस्तार भिती मूळे आपण थोडक्यात चर्चा मांडली आहे. आता आणखिन काही संजीवनी विद्यांची थोडक्यात ओळख करून घेऊ या. थोडक्यात अशासाठी म्हणतो, की ह्या संजीवनी विद्यांचा आवाका इतका मोठा आहे की ह्यातील प्रत्येक विद्येवर पुस्तक होऊ शकते. त्यातही विज्ञानामूळे एक नवीन सुविधा येते ती सोबत एका असूविधेला घेऊन येते. त्या असुविधेतून सूटका करून घेण्यासाठी नवी संजीवनी विद्या शोधावी लागते आणि उपलब्ध ही होणार.  कारण आजही ह्या जगात सज्जन शक्ती कार्यरत आहे. अतः संजीवनी विद्यावर आपली चर्चा अधून मधून होत राहणार असेच दिसते.

अलिकडे स्वयंसेवी संघटनांमार्फत नेत्रदान, अवयव दान, देहदानाची चळवळ हाती घेतली जात आहे त्या चळवळीला प्रतिसाद मिळू लागला आहे.  अवयवदानातून एखाद्या रूग्णाचे आयुर्मान वाढते, दृष्टी मिळते ही एक आधूनिक नवसंजीवनी विद्याच आहे. वैद्यकीय क्षेत्रात होणार्या नव्या शोधांचे कौतूक सर्वत्र होत असते आणि व्हावयला हवेच, त्याच वेळी स्वयंसेवी संघटना जीवापाड मेहनत घेऊन ही चळवळ राबवित आहेत त्या संघटना ही एक प्रकारे डाॅक्टरांप्रमाणे आधूनिक शुक्राचार्य आहेत असेच मानणे उचीत ठरते.

आज अनेक स्वयंसेवी संघटना वाचन संस्कृती वाढवित आहेत. कोणी घरोदारी पुस्तके, तर कोणी फिरते वाचनालय, कुठे पुस्तकाचे गाव असे कार्यक्रम राबवितांना दिसतात. कोणी फिरता दवाखाना चालवितात तर कोणी विज्ञान कार्यशाळांचे आयोजन करतात. संजीवनी परिवार संस्था सुध्दा आपल्या स्थापनेपासून विद्यार्थ्यांमध्यें वाचनाची गोडी निर्माण करण्याचे कार्यक्रम राबवित आहे. वाढदिवस, विवाह, सत्कार, निवृत्ती इत्यादी समारोहात पुस्तके भेंट देण्याची मोहीम राबवीत आहे. वाचाल तर वाचाल असे म्हटले जाते ते काही खोटे नाही. 'वाचाल तर वाचाल ' ह्या उक्तीचा सोपा अर्थ साक्षर होणे. आजच्या जगात साक्षर नसणे म्हणजे जीवन जगत असतानाच मृतवत होण्यासारखी स्थिती होय. त्यातही नवीन तंत्रज्ञान शिकणे ही अपरिहार्य आहे. पण त्या तंत्रज्ञानामूळे आपण यांत्रीक तोता बनू नये अशी काळजी ही घ्यावी लागते. वाचण्याची गोडी वाढविणे म्हणजे एक प्रकारे जीवदानच की. क्रिकेट खेळात एखाद्या फलंदाजाचा झेल प्रतिपक्षाच्या खेळाडूने सोडला तर त्याला जीवदान मिळाले असे म्हणतात. पण त्याचबरोबर ज्याने झेल सोडला त्या खेळाडूला मरणप्राय यातना होत असतात.  का तर तो ज्या संघाकडून खेळतो, त्या संघाचे लाखो समर्थक नुसती टिका करून थांबत नाहीत तर शिव्यांची लाखोली वाहतात. मग त्याने काय करावे? काही तरी धीर देणारे लेखन वाचावे. काही तरी संगीत ऐकावे. प्रापंचिक जीवनात अनेक दुखाःच्या प्रसंगांना सामोरे जावयास लागते, ज्यामूळे मनुष्य बेजार होतो. निराश होतो. आपण पराभूत झालो आहे, ही भावना सतत मनात घर करून बसते. सोबत  ' लोक काय म्हणतील ' हे भूत आपल्या मनगूटीवर बसलेले असते. श्रीमंत व सर्व प्रकारच्या आधूनिक सुखसोयीने जगणार्यानांही नैराश्य येत असतेच की. उलट त्यांना तर जीवनच नकोसे होते अशी स्थिती निर्माण होते. आज उच्चभ्रू वस्तीतही आत्महत्येचे प्रमाण वाढत असलेले दिसते. एखाद्या कवीला ' जगण्यातही मरण भासते ' अशी कविता सुचू शकेल असे आजच्या कुटुंब व्यवस्थेची स्थिती आहे. नैराश्याच्या गर्तेत आपण जाणार असे भासताच आपल्याला आवडणारे पुस्तक वाचावयास घेतले की सारा तणाव दूर होतो. अनेक पुस्तके असतात ज्यातून आपली पराभूत वृत्तीतून सुटका होत असते. म्हणजे एक प्रकारे जीवदान नव्हे काय ? ही चर्चा फक्त क्रिकेट खेळातल्या झेल सोडणार्या खेळाडूच्या मनस्थिती पुरता मर्यादित नाही. व्यक्ती तितक्या प्रकृती असे आपण म्हणतो, त्याच आधारे ' व्यक्ती तितकी साहित्याची रूची ' असे मानावयास हरकत नाही. साहित्याचे प्रकार अनेक आहेत ; त्यात साहित्यीकांची शैली वेगळी ; ज्याला जे आवडेल ते वाचावयास मिळते. म्हणजेच आनंद मिळतो. ' मन करा रे प्रसन्न सर्व सिध्दि कारण' असे तुकाराम महाराजाने म्हटले आहे. तुकाराम महाराजांची ही उक्ती अभंग नावाच्या साहित्य प्रकारातच मोडते. आनंदी मन म्हणजे निरोगी शरीर हे तर सर्वश्रूत सुत्र आहे. कारण आयुर्वेद असो वा ॲलोपथी, होमीयोपोथी वा नेचर क्युअर, सर्वांनी मांडलेले ते तत्व होय. कधी कधी मला वाटते की वाचन ही एक फक्त शारिरीक क्रिया नाही. वाचन सुध्दा एक प्रकारचा योगाभ्यास असावा. वाचणे हे क्रियापद 'वाचा' ह्यावरून झाले असावे का ? मला त्याबाबत ठोस उत्तर देता नाही पण आपल्याला चार प्रकारच्या वाचा (वाणी) आहेत असे वेदमूर्ती स कृ देवधरांनी त्यांच्या गायत्री उपासना नावाच्या पुस्तकात म्हटले आहे. जी जिभेच्या आघातातून उत्पन्न होते ती वैश्वरी; मध्यमा ही कंठात असते; पश्यन्ति हृदयाजवळ असते आणि परा ही अतिशय सुक्ष्म असते. वरील तिन्ही वाण्यांचे उत्पत्तीस्थान नाभी मध्ये असते. आपण जेव्हा वाचतो, म्हणजे एक प्रकारे आपण बोलत असतो. आपला मेंदू तात्काळ आपल्या कानांना आपले बोलणे ऐकावयाची आज्ञा देत असावा. एक अर्थी आपण बोलतो तेव्हा प्रथम आपणच ऐकत असतो. त्यामूळे आपल्यात संयम बळावत जातो. सततच्या वाचनाने उच्च पातळीवरचा संयम आपल्या अंगी बळावतो. त्यामूळे आपण दुसर्यांचे विचार शांतपणे ऐकून घेतो. त्यातून आपला विचार प्रगल्भ होतो. विचार प्रगल्भ झाला की विवेक सुचतो. विवेकांतून सन्मार्ग दिसतो. सन्मार्गावर होणारे कर्म  सत्कृत्यच ठरते. त्यातून मिळालेले यश व समाधान हाच तो मोक्ष असावा. 

अलीकडच्या काळात पुस्तके वाचणे हा फक्त कला शाखेतील विद्यार्थ्यांचा व प्राध्यापक वा प्रवचनकारांचा प्रांत आहे अशी खूळी समजूत रूढ झाली. साहित्य ही कलाकृती आहे. मानवाची वैज्ञानिक क्षेत्रातील वाटचाल सुद्धा शब्दात बांधावी लागतेच ना ! विख्यात शास्त्रज्ञ आईनस्टाईन म्हणतात Imaginatio is more important than knowledge. साहित्य हे कल्पनेने व सत्याने भरलेला खजिना आहे. त्याची ओढ लागणे आवश्यकच आहे.  कारण ती ही अनादि काळापासून मानवाला तारून ठेवणारी संजीवनी विद्या आहे. 

अनेक स्वयंसेवी संघटना दर वर्षी केंद्रिय अर्थसंकल्प झाला की, त्यावर चर्चा, प्रश्नोत्तरे असा कार्यक्रम राबवित असतात. त्या कार्यक्रमासाठी एखाद्या अर्थशास्त्रातील तज्ञाचे सहाय्य घेऊन जनसामान्यांना मार्गदर्शन होत असते. त्या अर्थसंकल्पात जनसामान्यांच्या जीवनावर अनेक दूरगामी परीणाम करणार्या तरतूदी असतात. त्या जनसामान्यांना जर समजल्याच नाहीत, तर त्यांना मिळणारे अर्थ सहाय्य दुसरेच कोणी लाटतील. म्हणजे आर्थिक निरक्षरता एक प्रकारे जीवावरच बेतते की नाही ? दुसरे असे की आपले प्रतिनिधी सरकारमध्ये बसले आहेत ते आपल्यासाठी काय करणार आहेत ते नागरिक म्हणून कळणे आवश्यकच आहे. पण त्यासाठी नागरिकांना अर्थ संकल्पासंबंधी जुजबी ज्ञान असणे गरजेचे आहे आणि ती गरज ही स्वयंसेवी संस्था भागवित असतात.  माझ्या ब्लाॅगवर ' आपला अर्थसंकल्प व आपण ' ह्या शिर्षकाचा लेख आहे, त्यात आर्थिक साक्षरतेची कशी नितांत गरज आहे हे मी मांडले आहे. म्हणून ह्यासंबंधी अधिक काही मांडत नाही.  संजीवनी परिवार हा कार्यक्रम दरवर्षी न चूकता राबवत आहे.

संजीवनी परिवार मेडीकल चेकअप चे कार्यक्रम आयोजीत करत असते. गरीब रूग्णाला आर्थिक मदत ही पुरविते. ही मोहीम तर प्रत्यक्ष जीव वाचविण्याचीच आहे, ह्यावर अधिक चर्चा करण्याची गरज नाही. दर वर्षी मेडीकल चेकअपचा अस कार्यक्रम घेणे हे सोपे नसते. त्यातही पुष्कळदा मेडीकल चेकअपच्या बाबतीत समाजबांधव  हेडसाळपणा करीत असतात. त्यांना नियमित मेडीकल चेकअपच्या कार्यक्रमाची सवय लावणे हे ही संजीवनी विद्येचाच भाग आहेच की.

ज्ञान-विज्ञानाच्या कक्षा विस्तारत आहे. तंत्रज्ञानातील अपूर्व क्रान्तीमूळे जग जवळ आले असे आपण म्हणत असलो तरी मूलतः जग प्रसरण पावत आहे. त्यामूळे मानवी जीवनाच्या कक्षा वाढल्या आहेत. त्यामूळे प्रत्येक क्षेत्रातील तज्ञ मंडळीकडून समाजबांधवाना मार्गदर्शन मिळणे आवश्यक ठरले आहे. जग पुढे जात असेल तर आपला समाज का मागे राहावा. गती हा आजच्या काळातला मंत्र आहे. थाबंला तो संपला म्हणजे जीवन जगताना पदोपदी अडथळे येणार. त्यातून मार्ग काढणे म्हणजे व्याख्यानाचा कार्यक्रम राबविणे होय. अनेक स्वयंसेवी संघटना विशेषतः उन्हाळ्याच्या सुटीत असे कार्यक्रम आखतात. त्यात वक्ता प्रशिक्षण, नेतृत्व प्रशिक्षण, नृत्य, अभिनय, संस्कार, विविध कला, कोरीव कामें, व्यवसाय, लघु उद्योग इत्यादी विषयावर मार्गदर्शन मिळत असते.  विद्यार्थ्यांना सूट्टी असते, मग पालकांना ही उसंत मिळते. त्यामूळे विद्यार्थ्यांसोबत पालकही अशा प्रबोधनपर कार्यक्रमांना उपस्थित राहतात. म्हणजे समाज जागरणाचा यज्ञच पार पाडत असतात.

प्राचीन काळातले आपण यज्ञ पाहीले नाहीत. त्या काळातही यज्ञाचे प्रयोजन हवा शुद्धीकरण, प्रजेचे रक्षण व विकाससाठी होतेच. शिवाय ज्ञानाचा प्रसार व दानधर्मही होता. आजच्या काळात व्याख्यानें म्हणजे ज्ञानयज्ञ. त्यातून  अनेक संजीवनी विद्याची खैरात होत राहणार आहे. त्यात काळानूसार, वर्षालागी बदल होणार, सोबत वाढ ही होत राहणार आहे. पुष्कळदा अशा छोट्या छोट्या अभियानाचे, जागरणाचे महत्व लक्षात येत नसते कारण अशा स्वयंसेवी संस्था प्रसिद्धीच्या मागे लागत नाहीत.  रात्रीच्या प्रशांत समयी दंव पडत असतांना त्यांचा यत्किंचित आवाज कोणाला ऐकू येत नाही परंतु सकाळी उठून पहावें तो त्या दंवाच्या थेंबांनी सर्व फुले प्रफुल्ल आणि विकसित झालेली आढळून येतात. स्वयंसेवी संघटनाचे कार्यही असेच गाजावाजा न होतां अत्यंत शांतपणे होत असते.

आजच्या घडीला सर्वांना ज्ञात असलेले बाबा आमटेंचे आनंदवन, सिंधूताई सकपाळांचे अनाथालय, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवाराचे  ग्रामीण भागात असणारे विविध आश्रम, सेवा प्रकल्प, संघ परिवारातील डाॅ. कुकडेंचे हाॅस्पीटल, भटक्या व विमूक्त जातींना स्थैर्य देणारे गिरीश प्रभूणे, व्यसन मूक्ताचा प्रचार करणारे डाॅ अभय बंग, नानाजी देशमूख ह्याचां चित्रकूट मधोल प्रकल्प , स्वाध्याय परिवार, दत्त संप्रदायातील सर्व सद्गुरूचे सेवा प्रकल्प ह्या सार्या संस्था संजीवनी विद्याचे आजची विद्यापीठे आहेत. ह्या विद्यापिठा कडून प्रेरणा घेत गावागावात पावसाचे पाणी अडवून शिवारं तयार करणारी मंडळे, शेती क्षेत्रात नवे प्रयोग करून यशस्वी होणारे शेतकरी, स्वच्छतेचं गाव, स्वावलंबी गाव, असे नावारूपास येणारी मंडळे, ही सारी संजीवनी विद्याचा प्रसार करणारे केंद्र आहेत,  शाळा आहेत. उद्योगक्षेत्र, सेवा क्षेत्र, व्यापार क्षेत्र, दळणवळण, खनिजे, अन्न प्रक्रीया, औषधे, खतें, उर्जा, इलेक्ट्रानिक्स, माहीती व तंत्रज्ञान, पाककृती, नृत्य,  नाटके, सिनेमा जगत, संगीत, मिडीया, क्रिडा इत्यादी क्षेत्रात अकंलकीत रित्या टिकून राहण्यासाठी आधूनिक संजीवनी विद्यांचे केंद्र (स्वयंसेवी संघटना) असंख्य आहेत. आणि संख्या ही वाढत राहणार. त्यामूळे अधून मधून ह्या विषयावर व्यक्त होत राहणे, परस्पर संवाद साधणे, हे आलेच. त्यातून आपली आंतरिक शक्ती तजेल राहील व  संजीवनी विद्यांचा प्रसार करणार्यांचे बळ वाढत राहील. म्हणजे हे विश्व अस्तित्वात आहे तोपर्यंत आधूनिक काळातील संजीवनी विद्याचा अभ्यास आपल्या हाती विविध स्वयंसेवी संघटना देत राहणार. ह्याबद्दल त्यांचे कौतूक करण्यासाठी शब्द अपूरे पडतात. देशमुख आणि कंपनी पब्लिशर्स प्रा लि, पुणे ने प्रकाशित केलेले एक पुस्तक आहे, ज्याचे नाव आहे, वि स खांडेकर विचारधारा, संपादक  वि वा शिरवाडकर . त्यातील प्रस्तावनेत ज्ञानपीठ विजेते वि वा शिरवाडकरांनी, ज्ञानपीठ विजेते वि स खांडेकरांच्या प्रस्तावनादी लेखनातील जीवनविषयक विचार काय होता ह्या विषयी जे काही म्हटले आहे, त्यानेच या लेखाची समाप्ती करीत आहे. 

" यंत्र हे आजच्या युगात सर्वव्यापी आहे आणि असणार. पण या यंत्रयात्रेत माणसाने आपला आत्मा गमावला. ऐहिक प्रगतीच्या झंझेत नैतिक निष्ठा जर उन्मळून पडल्या, तर ती प्रगती, प्रगती राहणार नाही. अधोगतीकडे म्हणजे सर्वनाशाकडे जाणारा तो राजरस्ता ठरेल. यांत्रिकेमुळे पराक्रम वाढला त्याप्रमाणे सुखसोयी वाढल्या. शारीरिक आणि मानसिक सुखपभोगाच्या जागा शतगुणित झाल्या. अशा परिस्थितीत सर्वसाधारण माणसाचा ' ययाती ' होणे संभवनीय असते. हे माणसाचे ययातीकरण आज देशात आणि जगात मोठ्या प्रमाणावर होत आहे. ही खांडेकरांची खंत आहे. ' सुखाचा शोध ' हे तर माणसाच्या जीवनाचे आद्य उद्दिष्ट आहे. तो शोध घेण्यात , ते मिळविण्यात काहीही गैर नाही. पण हे सुख पावसाच्या पाण्यासारखे निर्मळ, अकलंकित असावे, ते गटारीच्या डबक्यासारखे अस्वच्छ, आंधळी वासना, अत्याचार, निर्दयता, आक्रमक स्वार्थ इत्यादींनी दूषित झालेले नसावे, हे खांडेकरांनी ययाती आणि अन्यत्रही वारंवार सांगितले आहे. मग या काळोखाच्या समुद्राला प्रकाशाचे किनारे कोठेच नसतात का ? असतात. ते असतात म्हणूनच माणसाची जात धरतीवरून अद्याप नष्ट झालेली नाही ; अथवा होणारही नाही. हजारो-लाखो ययाती निर्माण होतात ; पण या ययातीच्या जमावातूनच एखादा कचही निर्माण होतो. शतका-शतकातून निर्माण होणारे हे कचच माणसाचे, मानवी संस्कृतीचे, त्याच्या भौतिक, अध्यात्मिक विकासाचे प्रवर्तक आणि राखणदार असतात."

दिल्ली राज्य निवडणूक निकाल--केजरीवाल नावाचं काटेरी झुडपं भस्मसात ? (भाग -१)

गेल्या शनिवारी म्हणजे ८ फेब्रुवारी २०२५ या दिवशी दिल्ली विधानसभा निवडणूकांचा निकाल लागला. बहुतांश न्यूज चॅनेल्सनी मांडलेले भाकीत खरे ठरले. भ...