रविवार, ३० जून, २०१९

शिवराज्याभिषेक दिन पर्वपर भाग २



शिवाजी महाराजका सुशासन 

दुनियामें कोई भी समाज हो, और दुनियाके कोई कोनोंमे  निवास करनेवाला हो, सामाजिक स्थिती राज्यव्यवस्थापर नही, बल्की राजनीतीके उपर अधिकतम निर्भर रहती है | आज दुनियामे जितनी राज्यप्रणाली अस्तित्वमें है, चाहे वह राजेशाही हो, एक पक्षीय साम्यवादी हो, याँ लोकशाही हो, इन सभीमें शासन नामकी व्यवस्था तो रहती ही है | सत्तापर विराजमान कौन है, यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात 
है | इसिलीये वैदिक कालसे हमारे यहाँ दो वचन कहा गये है, वह इस प्रकार है -- 

' यथा राजा तथा प्रजा |' और   'राजा कालस्य कारणम् |'

सुसंस्कार लेकर तैयार हुये नेताओंके पास सत्ता आती है, तो प्रजा सुखी रहती है | शासन को कब सुशासन कहा जा सकते है, इसकी कुछ कसौटीयाँ रहती है |और वह कसौटियाँ समय बदल गया तो भी उनमेंसे एक भी बदलती नही हैं | इसका कारन यह है की वह शाश्वत सिद्धांत है | पहले उनपर सिध्दांतपर चर्चा करेगे ताकी शिवशाही यह एक सुशासनका ऐताहासिक उदाहरण है, इस सत्यतक हम पहूँच सके | 

१)ऐसा राज जहाँ प्रजाके हितको अधिक प्राधान्य दिया जाता है | इसका अर्थ यहीं है की राजा याँ सत्ताधारी प्रमूख याँ राजनैतिक दल वास्तवमे सत्ताके विश्वस्त है, इस भावनासे काम करें, राज चलायें, तो राजमें कभी बेबनाव बननेकी स्थिती आती नही | 

२) ऐसा राज जहाँ सज्जनोंका गौरव और दुर्जनोंके कूकर्मोंके प्रती  शासन का कडा रव्वैया है | 

३) किसान और सेनादलकी आर्थिक स्थिती अच्छी हो तो वह समाज सुरक्षित भी रहता है और शेतमालका उत्पन्न भी अधिक होता है | अन्न, और सुरक्षा यह दोन प्रमूख जरूरतेंके बारेमें समाज निश्चीन्त होता है तब वह समाज  बौद्धिक, शारिरीक , मानसिक, औद्योगिक, एवं सामरिक दृष्टीसे बलवान बननेकी क्षमता प्राप्त करता है | 

४) महिला, संतजन, विद्वान, ज्ञानी  के प्रती शासकके मनमे आदर होता है तब  समाजकी सृजनशिलता बढती है, वैचारिक उचांई भी बढती है |

५) सत्ताधारी, तथा सरकारी अधिकारियोंकी नितीमत्ता अच्छी है तो समाजके सुख और आनंदमे बाधा उत्पन्न नही होती है | जब समाज सुखी और आनंदी है, तब राज्यव्यस्था स्थिर रहती है और जब राज्यव्यवस्था स्थिर होती है तो समाज प्रगतपथपर चलने लगता है | 

शिवाजी महाराजका शासन काल उनके  राज्याभिषेक के बाद ही छुरू होता है | राज्याभिषेक के तुरन्त शिवाजी महाराजने राज्यव्यस्थामे बदल किया | राज्यके कोषको भार पडनेवाली वतनदार, सरंजमशाही नष्ट की गयी | उसके बदलेंमे शहीद हुये सैनिकोंके परिवारको तनखा देना सुरू किया | अपने राजमहलमे अष्टप्रधान मंडल बनाया, जिससे राज्यका कारोबार जनताभिमुख रहें | वेदकालीन राजधर्मका पालन भी इसी तरहका रहता था | वैदिक कालमे हमारे यहाँ ग्रामपंचायत राज गणतंत्रसे चलता था | ऋग्वेदमें एक ऋचा है जिसमे कहा है की, ' हे राजन आप इस राष्ट्रका स्वामी हो इसिलीए आपको हमने चूनाया है | 'अथर्ववेदमें सभा, समिती जैसे शासन चलानेकी तंत्र का जिक्र किया हुआ  है | वैदिक कालसे चली आयी राज्यव्यवस्थाकी पुनर्स्थापना का छत्रपती शिवाजी महाराजको ही श्रेय जाता है | पाठकोंको विनंती है की भगवानकी आरती करनेके बाद जो मंत्रपुष्पांजली स्त्रोत्र हम गाते है, वह एक वैदिक कालकी प्रार्थना है जिसमें भगवानसे राज्यशासनकी मांग की है | उस प्रार्थनामे आदर्श राज्यव्यवस्थाके बारेंमे जो वर्णन है वह शिवाजी महाराजके सुशासनसे मिला जूला है, इसिलीए छत्रपती शिवाजी महाराज जनसामान्योंके दैवत बने | 

सुलतानशाही, आदिलशाही, निजामशाहीमे भ्रष्टाचार, मुफ्तमें खानेकी, ऐष करनेकी आदत प्रशासनमे बढी थी | उसमे सुधार लानेकी कवायत करनेमे शिवाजी महाराजने थोडीसी भी देरी नही की | राज्याभिषेक बाद सभी अधिकारीओंको "अपनी आदत बदलो  याँ  कुकर्मकी जबर शिक्षाके लिए तयार रहो " ऐसा कडक इशारा 
दिया | प्रशासकीय कामकाजमे एक नया शब्दकोश बनाया, जिसमे संस्कृत प्रचूर मराठी शब्द तथा हिंदी शब्द आये | उर्दू तथा यवनोंके भाषाके शब्द को हटाया गया | एक नया शक सनावलीका भी प्रारंभ किया | सामान्यजनोमें सोया हुआ अभिमान जाग उठा और स्वत्व, स्वराज, स्वधर्म, स्वभाषा का बोलबाला छुरू 
हुआ | मेरा मानना है की मानसशास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार देखे, तो समाजमे एकता तब बनती है जब समाज बांधवके अन्दर धार्मिक उत्सव मनानेका तरीके भिन्न हो पर तत्व समान है इस बातपर, उनका राजा या सत्ताधारी (चाहे वो कौनसी भी राज्यप्रणाली हो,) ज्यादा ध्यान देता है | शिवाजी महाराजने वही किया, जिससे उनके शासन कालमे, समाजमे भाईचारा बढा था, और प्रशासन तथा समाजकी कार्यशक्ती उंचाई के स्तरपर पहूंची थी | अपने ही समाजके शाक्त पंथीयोकों समाजके मुख्य धारामे लानेके लिए शिवाजी महाराजने राज्याभिषेक होनेके बाद बारह दिनपर शाक्त पंथसे रिती रिवाजके अनुसार फिर राज्याभिषेक करवाया | शाक्त पंथ स्वराजमे सम्मेलीत होनेके बाद स्वराजकी सामरिक शक्तीमे वृंद्धी हुई |

प्रशासनकी एक अजब महत्ती है, यदी इसमे नरमाई, ऐषआरामी आ गयी तो समाज गहरी नींदमे जानेका खतरा निर्माण होता है, और राज्यके प्रशासनमे उत्साह, चैतन्य है तो समाजमे एक नई ऊर्जा उत्पन्न होती है | इन दो सिध्दांतको शिवाजी महाराज भलीभाँती जानते थे | जब समाजकी कार्यक्षमता तथा प्रामाणिकता बढती है तो हर क्षेत्रमें समाज तथा देश विकास के राहपर निकल पडता है और तभी तो राष्ट्र बलवान होता है | शिवकालीन प्रशासन के अभ्यासक  छत्रपती शिवाजी महाराजको महान योद्धा तो मानते ही थै, इससे अलावा वह सारे अभ्यासक शिवाजी महाराजको एक कुशल प्रशासक तथा व्यवस्थापन शास्त्रके एक अदभूत गुरू भी मानते है |

जब सुशासनकी बात आती है तो भारत जैसे  कृषीप्रधान देशमे किसानोंकी स्थिती कैसी है, यह अहम बात मानी जाती है, और  इसपर चर्चा होना स्वाभाविक है | जिसे हम आदर्श राजा मानते है ऐसे शिवाजी महाराजका ध्यान किसान वर्गकी परेशानी पर नही जाता तो आश्चर्यकी बात बनती |  शिवाजी महाराज जितने पराक्रमी थी उतनेही  किसान, छोटा-मोटा व्यापारी, कारागिर, मजदूर, ऐसे मेहनत करनेवाले सामान्यजन गरीबीसे त्रस्त देखके वह भावूक भी होते थे | समाजबांधवके प्रती वह संवेदनशील थे | मेरे पढनेमे आया की कभी कभी शिवाजी महाराजका मन बैरागी वृतीसे भी भर जाता था | संतजनोके कार्यसे वह प्रभावीत होते थे | उनकी विरक्ती देखकर जीजाऊ  चिंतीत भी होती थी और एक दिन शिवाजीको बोली " शिवबा, एक बार संत तुकाराम महाराजका किर्तन सूनकर उनका आशिर्वाद ले लिजीये | " अपनी माँ की आज्ञाको पालन करनेके लिए  शिवाजी निकल पडे तुकाराम महाराजके दर्शन करनेके लिए | शिवबामें अपने कर्तव्यके प्रती वैराग्य उत्पन्न न हो ऐसी जिजाऊ की इच्छा थी | आखिर जब तुकाराम महाराजसे शिवाजी मिलते है, तब उन्होंने शिवाजीको सलाह दि की, "मै आपके कुछ कामका नही हूँ, आप समर्थ रामदासके पास जाओ, क्यों की समाजको इस समय आपकी जरूरत है |" आखिर शिवाजी महाराज समर्थ रामदासके शिष्य बने | संत तुकाराम महाराजकी सलाह और जीजामाताकी चिंता व्यर्थ नही गयी| अपने देशके प्राचीन युगमें राजा दशरथको वसिष्ठ, पांडवोको श्रीकृष्ण, चंद्रगुप्तको चाणक्य ऐसे सलाह देनेवाले गुरू थे | यह ऐताहासिक सत्य शिवाजी महाराज भलीभाँती जानते 
थे | उनका साधू-संतोसे सलाह लेना, उनको नमन करना यह आजके राजनेताओं जैसा नाटक नही था | स्वधर्म, स्वजन स्वभाषा, देवी-देवताओकी मंदिरका और माँ-बहनोंकी इज्जतकी रक्षा करनेके लिये शिवाजी महाराजने स्वराज्यका निर्माण किया था | राजा बनकर आदर, मान, संपत्ती पानेकी लालसा शिवाजीके मनको कभी स्पर्श नही कर पायी, कारन जीजामाताके संस्कार जो उनपर हुये थे | कल्याणके सुभेदारको पराजीत करनेके बाद उसके बहनका कब्जा लेकर शिवाजीकी सैनिक जब दरबारमे आये तब शिवाजी महाराजके 'यदि इतनी सुदंर हमारी माता होती ' यह उद्गार नारीकी सर्वोच्च पावन मनसे कियी हुई पूजा है | शिवाजी महाराजने कल्याणके सुभेदारके बहनको सन्मानसे वापस भेज दिया | इसे कहते है ' हिंदू संस्कृती और इसे कहलाया जाता है " हिंदू साम्राज्यका राजा '

शिवाजी महाराजके शासन कालमें किसी नागरिकको जात, भाषा, धर्मके आधारपर दूजा भाव रखकर व्यवहार कभी नही हुआ | हिंदू सहिष्णू है और सहिष्णू रहेगा यह तत्व शिवाजी महाराजके शासन व्यवस्थाकी एक विशेषतः थी | पर धर्मके आधारपर किसीको ना कोई छूट मिली ना कोई स्वतंत्र दर्जेकी सुविधा | सभी जात-पात, भाषा धर्मके लोगोंके लिए समान नागरी कानून था | पर उनकी स्वधर्मपर निष्ठा ऐसी थी की उसे अंतपार नही था| आदिलशाही, सुलतानशाही, निजामशाही, मोगलाईमे जिन हिंदू मंदिरोंको तोडा था उनकी दुरूस्ती कि गयी | आक्रमकोंके घटियाँ चालसे जिन हिंदू बांधवको जबरन तरिकेसे इस्लाम याँ ख्रिस्ती बनाया गया है उनको फिर हिंदू धर्ममे वापस लेनेकी प्रक्रीयामें (शुद्धीकरन) बाधा उत्पन्न करनेवाले प्रस्थापित पुरोहीत वर्गके कुछ कर्मठ लोगोंकी एक भी  नही मानी और नेताजी पालकरको हिंदू समाजमे वापस लिया | 


राज्याभिषेक होनेके बाद तुरन्त शिवाजी महाराजाने सडी हुई  वतनदारी, सरंजमशाही व्यवस्था बंद की | सरंजमशहा और वतनदारोंसे किसानोंपर होनेवाला अन्याय खत्म हुआ और अपने अधिकारीओंको स्पष्ट  चेतावनी दि की " यदी  खेतकी फसल धान्य हो याँ सब्जी हो, मुफ्तमे लेनेकी कोशीश की, तो कडी सजाको तैयार रहना होगा |" सुलतानशाही, आदिलशाही तथा निजामशाही के राजमे किसानोके खेतोमे आग लगनेकी घटनायें नित्यकी वार्ता रही थी और किसानको काफी नूकसान होता था | किसानको राहत मिलनेके लिए रातमे मशाल जैसे दियाका उपयोगपर निर्बंध डाला, परेशानी देनेवाली करप्रणाली तात्काल बंद करायी | किसान वर्गमे जमीन मालकीपर मतभेद थे, इससे गृहकलह गाव-बखेडा बढे थे | इस पर नये ढंगसे फिरसे भूमीमापन किया गया और किसानोकी जमीन की सीमा तय कराके लियी | इससे किसान वर्ग खुष हुआ और नयी उर्जाके साथ काम करने लगा |  कृषी उत्पन्न बढना छुरू हुआ | जिन भूमीपर कुछ भी उगाया नही जाता वहाँ सब्जी फल का उत्पादन छुरू हुआ | सभी गावोंके बजारमे  जरूरतें वस्तूओंका वितरणके एक नयी व्यवस्था छुरू की थी | प्रशासनमे ऐसे नोकरशहा थे जिन्हें सुलतानशाही निजामशाही और आदिलशाही के राजमे  मुफ्तमे नमक, तेल, डाल, चावल, सब्जीयाँ लेनेकी बुरी आदत लगी थी उन्हें तात्काल बरखास्त किया | 

आदिलशाहीके राजमें चिंचवडके मोरया गोसावी नामके सिध्दस्त स्वामीके शिष्यगण, किसान और व्यापारी वर्गसे मुफ्तमे सब्जीया, चावल लेते थे, उस प्रथाको शिवाजी महाराजने बरखास्त किया | एक हिंदू धर्मगुरूको  हिंदू राजाके शासन कालमे  चावल, सब्जी जैसे चिजोंकी पैसा देना पडेगा यह बात स्वामीके शिष्योंको अनुचित लगा,  इससे  गोस्वामीके मनमे गलत फैमानी न हो इसके लिए महाराजने मोरया गोसावीको पत्र लिखकर कहा, ' साधू-संतोंका मान रखना यह राजाका काम है, ना  किसान और व्यापारीयोंका | आपके मठके लिए जो चीजें खरिदने पडेगी, उसके लिए पैसा मै मेरे निजी खर्चके लिये रखे हुये पैसोंसे मिल जायेगा, आप चिंता मत करो | इसे कहते है पारदर्शी राज्यशासन !

यवनोंके राजमे हर क्षेत्रमे अन्याय चल रहा था | सौ वर्षके वतनके बखेडापर कुछ निर्णय नही हुये थे | और ऐसी स्थिती मावळ प्रांतमे ज्यादा थी | अपनेही समाजबांधवोंका सामर्थ्य बेकारमें खर्च होता था | दस सालमे सभी न्यायालयीन केसेको सदरमे सवाल-जबाब तथा निहीत कागदपत्रोंद्वारा निकाली लगायी | समाजमे स्वस्थता आयी जिससे समाजबांधवोकी पिडा नष्ट हो गयी और भाईचार बढते बढते समाज बांधवकी कार्यक्षमता बढी | हर क्षेत्रमे उत्पादन बढा और स्वराजका महसूल भी बढ गया | छोटा-मोटा उद्योग क्षेत्रमे भी सांघीक शक्ती बढ गयी | इन सभी कार्यमें महाराजने बडी कुशलतासे  सामूहीक ( जिनमे  माता जिजाई , दादोजी कोंडदेव, अष्टप्रधान मंडल इनका समावेश था )   न्यायदृष्टीका उत्तम उपयोग किया |

सामान्यजन चाहे किसान हो, याँ व्यापारी हो, सेवा कर्म करनेवाले हो याँ पुरोहीत वर्ग , कारागिर वर्ग हो, याँ कर्मचारी वर्ग सभीको सुखी तथा सुनियोजित जीवनका अनुभव होने लगा | इसमे कायदा और सुव्यवस्थामे सुधारका भी योगदान था | जगह जगह पर 'राजा हो तो शिवाजी जैसा' ऐसा सूर सुननेमे आने लगा | अपने राजाके प्रती लोगोंको अभिमान था तथा लगाव भी था | लोग उन्हें ' जाणता राजा '  और ' लाडला राजा ' इस तरह संबोधन करने लगे | शासन कैसा लोकाभिमूख रहे , इसका एक मुर्तीमंत उदाहरण शिवाजी महाराजने पेश किया है, जिससे हमें आज भी प्रेरणा मिलती है और आगे ही मिलती रहेगी ऐसा विश्वास व्यक्त करके इस चर्चाको मै यहाँ समाप्त करता हूँ |

जय भवानी जय शिवाजी !

सोमवार, २४ जून, २०१९

शिवराज्याभिषेक दिनके पर्वपर भाग-२



इस लेख मालिका का भाग १ पब्लीश करनेके बाद महाराजका महान पराक्रम, साहस, अद्वितीय युध्दनीती, कुटनीती,  राष्ट्रीय सुरक्षा प्रती कटीबध्द नीती, अतूल्य संघटन कला, असीम राष्ट्रभक्ती,  प्रजाहितदक्ष शासन, अपनी सेना और प्रजापर माँके जैसी माया, स्वधर्मपर  निष्ठा, साधू-संत-सज्जनों,और महिला वर्गप्रती आदर और कर्तव्य निष्ठा, दुर्जनोंपर कडी नजर, यवन- आक्रमकोंके स्वजन और स्वधर्म पर होनेवाले अमानुष अत्याचारको ठकासी महाठक ऐसा रूख  इन विषयकी सूची आँखोके सामने आ गयी | यदि हम हर विषयपर संक्षिप्तमें कुछ चर्चा करें,तो भी वह चर्चा एक स्वतंत्र लेख हो इतनी होनेवाली है ,यह महसूस हुआ | अतः आज चर्चा छुरू करनेसे पहले एक बात समझके चले, की शिवाजी महाराजके चरीत्रपर चर्चा नही बल्की पारायण होता है | क्योंकी शिवाजी महाराज एक युगपुरूष है | तो चलो, पहले महाराजका पराक्रम, साहस, युध्दनीती, कुटनीती पर चर्चा छुरू करते है |

छत्रपती शिवाजी महाराज का पराक्रम और युद्धनीती

१) छत्रपती शिवाजी महाराज युध्दमे कभी पिछे नही रहते थे, एक सेनापतीके तरह आगे रहते थे, इसी विशेषताको आज  leading from the front ऐसा कहा जाता है |

२) उन्होंने युध्दमे कभी संरक्षणात्मक तो कभी आक्रमक नीती अपनायी दिखती है | उनकी Gauila Warfare याने गनीमी कावापर दुनियाके सभी देश जितने उत्साहीत ढंगसे अभ्यास करते है उतनेही गंभीरातसे ही करते है क्योंकी युध्दका यह तरिका अंमलमे लानेमे कई कठीनाई भी रहती थी | 

३) दुनियामे, बहूत बडे योध्दा हुये लेकीन युध्दके अभ्यासक शिवाजी महाराजको अग्र स्थान देनेमे हिचकते नही है | इसका कारन शिवाजी महाराजके समकालीन योध्दा हो याँ उनके पुर्वकालीन हो तौलानिक दृष्टीसे शिवाजी महाराजकी देहयष्टी उँचाई तथा चौडाईमे कम थी | फिर भी उनकी शक्ती, नजर और बुध्दी सबसे तेज थी | 

४) शिवाजी महाराजका साहस अद्भूत था और उनकी सावधनता भी उतनीही अद्भूत थी | इसिलीए उनके शत्रू अंदाज नही करपाये |  बार बार एक सवाल उनके शत्रूको सदाके लिए सताता रहा कि इतनी कम संख्याकी सेना लेकर शिवाजी उन्हे पराजीत कसै करता रहा | कम संख्याकी सेनासे जब अपनी बडी संख्याकी सेना पराजीत होती है तो इसका दुःख मृत्यूसे अधिक दाहक होता है | गीतामे भगवान श्रीकृष्णने कहा,' संभावितस्य अकिर्ती मरणात् अतिरिच्यते |  (किर्तीवान आदमीको अपकिर्ती मृत्यूसे ही खतरनाक लगती है) और यही हालत हो गयी औरंगजेब, निझाम, आदिलशाह इनके सेनाका | किसी इतिहासकारने लिखा है कि मोगलोंके घोडे भी इतने डरपोक बने गये थे की, उनको पानी पिते समय भी पानीमे उन्हे शिवाजी महाराजके सेनापती दिखते थे | शिवाजी महाराजकी युध्दनीतीसे प्रतिपक्ष सेनाके मनोबलपर बडा प्रहार हो जाता था |  शिवाजी महाराजकी युध्दनीती के कई उदाहरण है इसमेसे दो मुख्य उदाहरण नीचे देता हूँ |
        अफझलखानका वध
अफझलखानका वध का जो वर्णन, वृत्तांत इतिहासमे पढा है, सुना है, इससे एक बात स्पष्ट है की शिवाजी महाराजका साहस की गिनती ना अंकोमे होती है, ना शब्दोमे की जाती है | किसी शत्रूके सरदारका खात्मा करना है, तो महाराज उस सरदारकी देहयष्टी, ताकद, युध्द कौशल्य, उसका स्वभाव, उसका पेहराव, उसकी कमीयाँ, प्रत्यक्ष युध्दमे उसकी अबतक की सफलता और सफलतामे उसका खुदका योगदान, उसके साथ आये हुये सैनिककी संख्या, हत्यारें-शस्त्रे, इन सब चीजोंकी जानकारी शिवाजी महाराज पहलेही लेते थे ऐसा तर्क याँ अनुमान निकलता है |

अफझलखानको मारते समय सावधानी और चतुराईसे उसे उसकी मुख्य सेनासे अलग करके अपने क्षेत्रमे  बुलाया | बुलानेकी भाषाका इस्तेमाल भी ऐसा था, की अफझलखानको लगा की शिवाजी डर गया है और शिवाजीने तह की इच्छा जतायी है | इससे अंहकारी खानको आनंद लगना स्वाभाविक था | फिर भी खान शिवाजीको अपने शारिरीक शक्तीसे मिटा देनेकी तैयारीसे आया था | बस दोनोंकी भेट होती है, अफझलखानने शिवाजीको गले लगाकर अपने पहाडी शक्तीसे शिवाजीको दबाया और दम घोटनेकी मौत देनेका प्रयास किया तब शिवाजीने अपने कमरके अंदर छिपाया हुआ एक अजीब हत्यारसे (शेरके नाखूनसे बनाया ) खानके पेटमे घुसा घुसाके खानको मौतके घाट उतार दिया | शिवाजी और अफझलखानके भेट जब तय हूई उससे पहलेही अफझलखानको मारनेकी योजना तयार की 
थी | शिवाजी महाराजने पहले अपने जासूद (आजके भाषामे गुप्तहेर) अफझलखानके सेनामे फैलाके रखे थे |आखिरके मौकेपर बहिर्जी नाईक नामक जासूद अफझलके काफीलामें टरबूज बेचनेवालेके बहुरूपमे जाकर उनको टरबूज देनेके लिये आगे गया, टरबूज दिया और सुक्ष्म दृष्टीसे देख लिया की अफझलखानने अपने शरीरपर वस्त्रोके नीचे किसी तरहका  सुरक्षा कवच नही पहनाया था | यह बात शिवाजी महाराजको दुसरे जासूदके माध्यमसे पहूँचा दि गयी | इसका मतलब शिवाजी महाराजने अफझलखानको मिलनेका बहाना करके उसे खत्म करनेकी योजना पहले ही बनायी थी |  युद्धमे रिस्क लेना है  तो सावधानी, नियोजन और कृतीका अच्छा समन्वय पक्का करना पडता है , तो ही जीत होती है | अफझलखानका वध यह एक अर्वाचीन जगतमे एक नया युद्धनीतीका मुर्तीमंत उदाहरण था |

शिवाजींने  शाहिस्तेखानका, मनोभंग और पराजय करते समय वह रणनीती नही दोहरायी | बल्की उनके ३ लाख सैन्यके बीचमे सिर्फ १०० सैनिकको शादीकी बाराती बनकर साहससे  घूसें और रातके अंधेरेमे शाहीस्तेखानके महलमे खूद शिवाजी महाराज गये और बेसावधानीमे शाहीस्तेखानपर प्रहार किया | अचानक हमलेसे डर गये हुये शाहिस्तेखान भाग गये | नसीब उसकी जान बच गयी पर युद्धमे काम आनेवाली उंगलीयाँ तो तोड दियी | युद्धपिपासू और अंहकारी औरंगजेबके महान सेनापती और रिश्तेसे मामा शाहीस्तेखानको युद्धमैदानसे निवृत्त किया |  

शाहीस्तेखान, अफझलखानकी वधके तरीका शिवाजी फिर दोहारेगा यह उमीद करके बैठा और खुदको पागलपनका शिकार बनाया |  इस घटनासे  खतरनाक चाल करनेमे अपना राजा अग्रेसर रहता है यह एक अच्छा संदेश शिवाजी महाराजके सेनामे गया | सेनाको प्रेरणा मिली जिससे उनका आत्मबलमे बढोत्तरी हुई | 

५) बदलता समय देखकर युद्धके हाथियारोंमे आधूनिकता लानेकी कोशीशमे शिवाजी महाराज कुटनीती अपनाते थे | ब्रिटीश के स्पर्धक फ्रान्स तथा कभी कभी पोर्तूगीज के साथ शस्त्र निर्मीती तथा खरीदनेका व्यवहार किया है | नये ढंगके शस्त्रोंका उन युरोपियन देशोंसे जानकारी ली और उसमे अपनी तकनिक डालके शस्त्र बनायें | साथ ही साथ अपने राज्यमे नई ढंगकी तलवारे बनायी जिनकी लंबाई बढायी ताकी अपने कम उँचाईवाले सैनिक  दुश्मनके ऊँचे सैनिकोको मार सके | 

६) शिवाजी महाराजकी दूरदृष्टी भी अजीब थी | जो समुंदरपर राज करेगा वह जगपर राज करेगा यह बात शिवाजी महाराज अच्छी तरहसे जानते थे | युरोपियन व्यापारी जो आते थे वह सिर्फ व्यापारी नही है, यह आक्रमक भी हो सकते है यह विचार शिवाजी महाराज जैसे बुध्दिमान राजाके मनमे आना इसमे आश्चर्य नही है | लेकीन उपायके रूपमे समुंदरपर तट बनानेमे प्राथमिकता देकर कार्यान्वीत करनेमे जो तत्परता शिवाजी महाराजाने दिखाई, इससे महाराजकी प्रशासनपर पकड कितनी मजबूत थी, इसका दर्शन हमें मिलता   है |  हेनरी रेनिंग्टनने एक ब्रिटीश युद्ध अभ्यासक शिवाजी महाराजका वर्णन  General of Hindu Forces इन शब्दोमे किया है |

७) छत्रपती शिवाजी महाराजकी सेनामे सब जात-पातके लोग सम्मेलीत किये जाते थे | ना छुत-अछूतका भेद ना उच्च -नीचका भेद |  समाजके सभी वर्गको रणभूमीपर अपने अपने स्वाभाविक रूची, मनिषा, काबिलीयत के अनुसार प्रवेश तथा जिम्मेदारी दि जाती थी | मैने एक जगह पढा है, कि शिवाजी महाराज खुद समाजके विभिन्न घटकोंके मुखीयाँ और उनके साथीदारोंसे सवाल-जबाबका सत्र रखकर सेनामें भर्ती करते थे | सुना है की महाराष्ट्रमें सुर्यवंशी समाजके मुखियाँ और उनके साथिदारोसें एक बार शिवाजीने पुछा कि " आप इस स्वराजके लिए क्या काम कर सकते है ?" तो उनका ग्रामीण भाषामे जबाब आया, " आमी कुनी बी हाय ; आमी नांगर (हल) बी चालवितो अन् तलवार बी ; आम्हांस्नी सैपांक भी जमतोय. (खाना बनाना)  आमी सैनीक भी हाय अन् शेतकरी बी हाय. " आज वही समाज कुणबी नामसे जाना जाता है | यह उदाहरण इसिलीए दिया की अर्वाचीन भारतमे सेनाकी रचनामें ऐसा  क्रान्तीकारक बदल का जनकत्व शिवाजी महाराजको जाता है | अपने देशमे वर्णव्यवस्था का खतरनाक जातीव्यवस्थामे जो रूपातंर हुआ था उसे शिवाजी महाराजने प्यारके दो शब्दोंसे बदल दिया | जब देशमे सिर्फ  क्षत्रियको ही हथीयार चलानेका हक्क था,  वह बदल गया | शिवाजी महाराजकी इस नीतीसे उनकी सेनामे  ' एकही राष्ट्रके हम सब सैनिक ' यह भावना उत्पन्न हुई जिसका उचीत परिणाम सेनाके परिवारमे तथा नागरी  (सिव्हिलीयन्स) समाजमे भी हुआ | 

श्री शिवाजी महाराज का इतिहास अजब तथा विभिन्न रूप लेकर आनेवाली युध्द नीती, अतूल्य साहस और पराक्रमसे भरा हुआ है | इसिलीए इस चर्चाको इधरही हम रोकते है क्योंकी हमें हरसाल राज्याभिषेक दिनके पर्वपर एक हप्तेतक तीन लेख हो, इस तरह शिवाजी महाराजके चरीत्र पारायण करना है | आनेवाले दो-चार दिनमे शिवाजी महाराजके प्रशासन कौशल्य पर चर्चा करेंगे |

      जय भवानी जय शिवाजी |

सोमवार, १७ जून, २०१९

शिवराज्याभिषेक दिन के पर्वपर - भाग १


शनिवार जेष्ठ शु १३ शा शके १९४१ याने शनिवार १५ जून २०१९ को सभी जगह अपने राष्ट्रके मानबिंदू और प्रेरणस्त्रोत छत्रपती शिवाजी महाराजका राज्याभिषेक दिन उत्सव मनाया गया | इसी दिन आजके पुर्व ३४५ सालमे  शिवाजी महाराजका राज्याभिषेक हुआ था | दिन था जेष्ठ शु१३ शके १५९२ अर्थात तारीख ६ जून१६७४ | शिवराज्याभिषेक दिनके पर्वपर चर्चा करनी है तो पहले वैदिक कालका अपना समाज, संस्कृती एवं राज्यव्यवस्था पर जरासी नजर डालना जरूरी है,  कारन यह है की छत्रपती शिवाजी महाराजका राज्याभिषेक समारोह कैसा था, उन्होंने स्थापित किया हुआ स्वराजका स्वरूप क्या था, कौनसी विशेषतायें थी, इन सब बातोंपर चीजोंपरकी हमारी चर्चा सही दिशामे जा सकती है ऐसी मेरी राय है | 

वैदिक कालमे हमारे यहाँ  दशरथ, जनक जैसे पराक्रमी और ऋषीमुनीओं इतने ज्ञानी राजा-महाराजा थे | गणपती तथा सत्यनारायणादि, दुर्गा और लक्ष्मी इत्यादी देव- दैवताओंकी  पुजा करनेके बाद जो मंत्रपुष्पाजंली करते है वह एक वैदिक कालकी प्रार्थना है | उसका अर्थ है,  हमारे देशमे कल्याणकारी राज्य रहे (आजकी welfare state की कल्पना वैदिक कालसे चलती आयी है), हमारे राज्य उपभोग्य वस्तुओंसे भरा हुआ हो और यहाँ लोकराज्य रहे, (याने अन्न वस्त्र और निवाराकी कमतरता न हो और राज्य लोकतांत्रिक रहे | इसका मतलब Democracy की कल्पनाके जनक भी हमारी वैदिक संस्कृती है) हमारा राज्य असत्य और लोभ विरहीत रहे (राज्यव्यवस्था सत्यमेव जयते और विरक्ती सिध्दांत पर निर्भर रहे, आजके परिभाषेमे राज्यका कारोबार पारदर्शक तथा भ्रष्ट्राचारमुक्त रहे)  हम परमश्रेष्ठ राज्यके आधिपत्य हमारा हो | हमारा राष्ट्र कैसा हो, वह सुरक्षित हो तथा धरतीकी सिमायेंतक और समुंदरकी अंतिम गहराही तक व्याप्त हो और वह राज्य भी सृष्टीके अंततक अजिंक्य रहे |  वैदिक कालमे प्रार्थना और प्रतिज्ञा मे फर्क नही था | प्रार्थना ही प्रतिज्ञा थी और प्रार्थना ही निश्चय था | क्योंकी राजे महाराजे त्यागी थे | समाज भी सत्य और नैतीकता स्विकार करनेवाला था | उस समय अपना देश अजिंक्य तथा वैभवसंपन्न था | गव्हर्नन्स नामकी चीज नही थी | समाज ही गव्हर्नन्सपर बैठा था ऐसा माने तो भी अतिरंजीत न होगा | 

मध्ययुगमेही विक्रमादित्य और चंद्रगुप्त मौर्य जैसे ही आदर्श राजा थे | उनके कालमे भी अपना देश वैभवसंपन्न था | लेकीन इसी युगके कही अंतिम चरणमे वर्णव्यवस्थाका रूप जातीव्यवस्थामे होकर हमारे समाजकी एकतामें इतनी बाधायें उत्पन्न होती रही की विदेशी आक्रमकोंके सामने हमारे राजा महाराजोंकी हार छुरू हो गयी,और दुर्दैवसे  भारतमाताके कंठ  स्थानसे फुलोंकी मालाके जगह  परवेशताका पाश आया | 

इस ७२५ मे अपने देशके उत्तर पश्चीमसे बिन कासीम नामके यवन आतंकवादीने आक्रमण किया और तबसे एक के बाद एक तुर्क, तैमूर, गझनी, चंगीजखान, मोंगल ऐसे यवनोंका अपने देशपर आक्रमणका सिलसिला छुरू हुआ |  हमारे मंदिर उध्वस्त किये गये | माॅ- बहनोकी इज्जत, सोना-चांदी जवाहरकी लुट छुरू हुई | अपना पुरा समाज भयमय हुआ था,  हर पल पर हिंदूबांधव घृणा, अपमान, अत्याचार के शिकार बन गये | लोगोके माथेपर यवन आक्रमकोंने जबरन अपने लोगोंको धर्म परिवर्तन कराके उन्हें इस्लाम बनानेकी एक षढयंत्रकी सुरूवात हुई | उसके बाद अंग्रेज आये | उनके सिर्फ एक हजार सैनिकके सामने प्लासीकी लढाईमें हिंदूस्थानकी हार हुई | वजह क्या थी? जाती-जमातीमे भेद, राजा-महाराजाओंके बीच स्पर्धा तथा उनकी ऐष वृत्ती, शस्त्र चलानेका अधिकार समाजके सिर्फ एक वर्गको था और बाकी समाज किस पक्षकी जीत होगी यह देखता रहा | पुरे समाजको आत्मविस्मृती जैसी बिमारी जड गयी थी | वही एक प्रमूख कारन है जिससे अपना देश एक हजार साल परतंत्रमे गया | 

अर्वाचीन कालमे आजसे ३४५ साल पहले देशके दख्खन प्रांतमे एक सोलह सालके युवक को देश और समाजकी  दयनीय स्थिती देखी नही गयी | उसने हर जात-पातके अपने बालमित्रको एकठ्ठा किया,और  कसम खाई,  'अब नही चलेगी यवनोंकी दादागिरी, अब ना होगा हमारे माँ-बहनकी इज्जत पर हमला, ना हमारे मंदिरोंपर !  हम एक ही नारा देंगे, हरहर महादेव और हमारी राष्ट्रभूमीमे सिर्फ स्वराज्य होगा | ' समाजके हर जात-पातके युवकोंको प्रेरीत करके अपनी सेना तैयार की और तोरणा किला जिताकर वहाँ हिंदू स्वराज्यका भगवा ध्वजका रोहण किया | उस युवक का नाम शिवबा था | उसे आज सिर्फ हिंदूस्थानमे नही बल्की जगतमे  पहचाना जाता है, ' गो ब्राह्मण प्रतिपालक छत्रपती शिवाजी महाराज ' नामसे |

शिवबासे छत्रपती शिवाजी महाराज बननेका मार्ग कितना कंटकाकीर्ण था उसका अंदाज लगाना हम जैसे सामान्यजनोकी शक्ती, दृष्टी और बुद्धीके अर्बो मैल दूरकी बात है | पहले तो  सारा समाज आत्मविस्मृतीमें गया हुआ ; जात-पात, उच-नीच के भेदमे बिखरा हुआ; उसमेसेही पराक्रमी राजे-महाराज, सेनानी, और अभिजन वर्ग आक्रमकोंकी चाकरी करनेमे धन्यता मान रहे थे, उन सभीको  शिवबा की स्वराजकी कल्पना हास्यास्पद लगती थी | इतनाही नही जगह जगहपर, नाकेपर, सार्वजनिक जगहपर ' ये कलका बच्चा कैसे यवनोंकी ताकदवान बडी संख्यावाली सेनाको परास्त करेगा ' ऐसी टिका टिप्पणी भी सुनने पडती थी | लेकीन शिवबा दृढ निश्चय कर बैठा था, और उसके साथिदारोंपर उसका पक्का भरोसा था | गहरी काली रातमे ना ठंडीकी पर्वा, ना बारीसकी | पहाड टेकडीके वक्रगोल, टूटे-फूटे पथ्थरोंसे भरे हुये रास्तेसे अपनी मार्गकी दिशा बनाते, कभी शत्रुको गुमराह करके राह बदललके, अपने साथीदारोंका हौसला बढाके एक के बाद एक शत्रूको पराजीत करके हर किल्लेपर कब्जा करके भगवा ध्वजका रोहण करते करते स्वराज्य निर्माण किया |  राज्याभिषेक समारोह बडी धूमधामसे हुआ और समाज बदल गया | समाजमे नवचैतन्य संचारने लगा |शिवराज्याभिषक दिनोत्सवकी विशेषतः यह थी की समाजका हर वर्ग उसे  'हिंदू साम्राज्य दिनोत्सव ' ही  मनाने लगा था | ऐसा क्यों, इसपर थोडीसी चर्चा करेंगे| 


शिवराज्याभिषेक --- हिंदू साम्राज्य दिन उत्सव

१) वैदिक कालमे अधिकतम राजघरानाका युवराजका राज्याभिषेक हो जाता था | उस समय जगतके दुसरे कोनेसे देशपर आक्रमण नही होते थे |

२) विक्रमादित्य और चंद्रगुप्त मौर्यके समय मुस्लीम आक्रमकको ज्यादातर उत्तरी-पश्चीम सीमाओंतक रूकाया जाता था | अपने देशपर उत्तरी-पश्चीम दिशासे जो आक्रमक आते थे वह स्वतंत्र रूपसे आते थे | उन्हें  तुर्कस्थानके खलिफासे फतवा नामकी चीज नही थी | 

३) शिवकालमे सारा हिंदू समाज सुलतानशाही, आदिलशाही, निजामशाही, मोगलाईसे त्रस्त था | यवनोंकी यह सभी जुलमी राजेशाही तुर्कस्थानके खलिपाकें नामसे चलती थी | क्योंकी इनके प्रमूख बादशाह तुर्कस्थानके खलिपासे हिंदूस्थानकी अपनी अपनी रियासतें चलानेकी अधिकृत परवाना माँगते थे और खलिपासे उन्हे इजाजतका पत्र मिल जाता था | इसका मतलब पुरे हिंदूस्थानको  इस्लामी देश बनानेकी तैयारी हुई थी| शिवाजी महाराजका राज्याभिषेक समारोह होना हिंदू समाजके लिये एक जरूरत थी | समयकी माँग थी | इन  यवनोंकी दशहतवादी और जुल्मी राज को एक करारा जबाब हिंदू राजासे देनेकी जरूरत थी | इन बातोंपर हिंदू समाजके धार्मिक गुरू, संतजन तथा सामाजिक नेता और विचारवंतोमे सहमती हुई थी | इन सभीकी और जिजामाताकी भी इच्छा थी की शिवबाका राज्याभिषेक हो | इसिलीये शिवाजी महाराज कहते थे कि " हे राज्य होणे ही श्रींची इच्छा आहे." ( यह राज्य निर्माणकी मनिषा ईश्वरकी है )

४) शिवाजी महाराजका राज्याभिषेक कैसा था ? इतिहासके अभ्यासक बताते है, की शिवाजी महाराजने जी प्रतीज्ञा ली वह हिंदू पंरपंराके तहत थी | काशीसे विख्यात वेदशालासंपन्न  गागाभट्टा और उसके सहकारी पुरोहीतके वेदमंत्रोकी गुंजमे,सप्तसिंधूके जलसे राज्याभिषेक समारोह संपन्न हुआ था | प्रभू श्री रामचंद्र, चंद्रगुप्त मौर्य और विक्रमादित्य इत्यादी राज्याभिषेक समारोहके बाद जो पंरपंरा जो खंडीत हुई थी वह फिरसे छुरू करनेके लिये शिवाजी सिंहासनापर अधिष्ठित हुए | (संदर्भ लोकराज्य १६-४-१९८५ पृष्ठ १८) 

५) छत्रपती शिवाजी महाराजाने अपने स्वराजका ध्वज हिंदू संस्कृतीका प्रतिक भगवा ध्वज स्विकारा इससे स्पष्ट होता है की शिवाजीकी मनिषा याँ कल्पना हिंदू स्वराज्य स्थापनेकी ही थी, इसमें कोई संदेह नही है | आदिलशाहीके सरदार मालोजी  घोरपडेको तथा मोगशाहीके सरदार जयसिंगको लिखे हुये पत्रसे भी यही सिद्ध होता है छत्रपती शिवाजी महाराजके मनमे हिंदू राष्ट्रकी कल्पना थी | मोगलशाहीके तरफसे जब जयसिंग आक्रमण करने आते थे तब पत्रमे शिवेजी महाराज उन्हे लिखते है, हिंदू स्वराज स्थापन करनेके लिए आप आते हो तो आपका आदरसे स्वागत के लिए मै तैयार हूँ, लेकीन  मोगलशाहीकी उन्नतीके लिए आप आ रहे हो तो आपको मै राष्ट्रद्रोही समझके आपसे व्यवहार करूंगा |

६)छत्रपती शिवाजी महाराजका राज्याभिषेक समारोहसे हमारे संस्कृतीके अनुसार बनायी हुई राष्ट्रकी संज्ञा जो खंडीत हुई थी, वह फिर एक बार व्यक्त रूपमे आयी | ' राष्ट्र  माने समान संस्कृती, समान आदर्श, समान पंरपंरा, और समान शत्रू-मित्र भाव रखकर हम सब एक है, इस भावनासे विशिष्ट भूमीमे वास्तव करनेवाला समाज | ' 

७)सिंधू नदीके आसपास रहनेवाला समाज हिंदू और वह राष्ट्र हिंदूस्थान | कई लोग जो खुदको सो काॅल्ड सेक्युलरीस्ट मानते है वह हिंदू शब्दका अर्थ इस्लामी लोगोंने दियी हुई  'गाली ' मानते है | सच बात यह है, की पश्चिमी तथा मध्य आशियासे आये हुये आक्रमक स इस शब्द का उच्चार ह ऐसा करते थे | सप्त सिंधू प्रदेशका उच्चार ' हप्त हिंदू प्रदेश ' होता था और इसिलीए सिंधूका भ्रमीत शब्द हिंदू हुआ | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघके द्वितीय सरसंघचालक पुजनीय गुरूजी इस विषयके महान विचारवंत थे, उन्होंने विचारधन नामके किताबमे इसपर गहन चिंतनका दर्शन दिया है |  इग्लीश विचारवंत मोनियर विल्यम इन्होंने भी गुरूजीकी बातपर सहमती जतायी है | 

८)छत्रपती शिवाजी महाराजाका राज्याभिषेकसे अपने समाजमे मूल एकताकी भावना वापस दृढ हुई | हमारी प्रान्तीय भाषा अलग हो, वेषभूशा भिन्न हो, आहार अलग हो, यह सब भिन्नता भौगोलिक स्थितीका परीणाम है | यदि हम रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ की साहित्यिक दृष्टीसे नजर डालते है तो हमे एक सत्य दिखता है की, ' भारतके सभी प्रांतमे उनके भाषामे ये दोनो ग्रंथ लिखीत स्वरूपमे मिलते है |भाजपाके नेता डाॅ मुरली मनोहर जोशी ने कहा है, कि " भारतकी सांस्कृतिक मुख्य धारा ऋग्वेदमे छुरू हुई और आजतक अविच्छिन्न रूपसे चली आ रही है |  काश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे समाजकी जीवन दृष्टीमे एक तत्व है | हमारे यहाँ कहा गया है, ' उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमादृश्चैव दक्षिणं | वर्षत भारतः भारतीय यत्र संतती ' अर्थात समुद्रके उत्तरमे और हिमालयके दक्षिणमे स्थित भूमीभाग भारत है और उसमे रहनेवाले भारतीय उसकी संतान | स्पष्ट यह है की यहाँ भारतके साथ माता और पुत्रका संबंध है | सारे भारतीय संस्कृती-सहोदर है |" 

९)शिवराज्याभिषेक समारोहका पौराहत्य दक्षिण स्थित महाराष्ट्रमे काशी के गागाभट्टाके नेतृत्वमे हुआ यह सत्य है और इससे ही यह सिध्द होता है की भारतमे केवल एक सभ्यता और संस्कृती है और वह है हिंदू सभ्यता और संस्कृती है |' यह ऐताहासीक सत्य लार्ड कर्झन और स्वतंत्रता पुर्व अखिल भारतीय राष्ट्रीय सभाके (याने आजके काॅग्रेस पक्ष) अध्यक्षा डाॅ ॲनी बेंझटने भी स्विकारा था | डाॅ कर्झन १९०४ मे एक पार्टीमे बोले है की  " हम इंग्लीश लोग जंगलमे रहते थे तब इंडीयामे एक विकसित संस्कृती थी | " और डाॅ अँनी बेंझटने कहा है  की, " हिंदूस्थानमे सबसे प्राचीन धर्म हिंदू ही है | अन्य धर्म जैसे आये, वैसे चले गये तो भी हिंदूस्थानका कुछ नुकसान नही होगा, लेकीन हिंदूस्थानसे हिंदूइझम खत्म हुआ तो इस देशका अस्तित्व नष्ट होगा |

छत्रपती शिवाजी महाराजके चरीत्रपर चर्चा हर साल उनके जयंती तथा राज्याभिषेक दिनपर करते रहें तो भी उसे समाप्ती नही है | इसिलीए इस चर्चापर मै यहाँ एक विश्राम लेता हूँ , ताकी हम स्वतंत्र रूपसे शिवाजी महाराजका पराक्रम तथा उनकी युद्धनीती और शासन व्यवस्था पर चर्चात्मक रूपसे अध्ययन कर सके |

              जय भवानी जय शिवाजी !

सोमवार, १० जून, २०१९

मृत्योर्मा अमृतं गमय |



बर्याच महीन्यानंतर म्हणजे ' इशावास्यम इदं सर्वम ' हा लेख लिहील्यानंतर आज मी 'आपण व आपली दैवते ' या विषया वर लेख लिहीण्यासाठी बसलो आहे. तसे पाहता कोजागिरी पौर्णिमा, कार्तिकी एकादशी, अस्पृशता एक बडी भूल, मकर संक्रातीके पर्वपर, इत्यादी अराजकीय लेख पब्लीश केले असले तरी १५ जानेवारी नंतर ब्लाॅगवर  राजकीय घडामोडीनेच जागा व्यापली. समाजाची धारणा ज्यातून होते तो धर्म. धर्म कल्पनेत राज्यव्यवस्थेचाही समावेश असतो. म्हणून राजकीय घडोमोडीवर विशेषतः निवडणूकीच्या काळातील राजकीय पक्षांच्या प्रचार सभा, रणनीती, जय-पराजय ह्या संबंधी लेख लिहीण्याकडे कल अधिक राहीला. पुर्वी सात-आठ वर्षे राजकारणात सक्रीय भाग घेतलेल्या निदान माझ्या सारख्यांसाठी ती स्वाभाविक प्रवृत्ती आहे, असे आपण मानाल अशी आशा व्यक्त करून मी आजच्या विषयाकडे वळतो. 

ईशावास्यम इदं सर्वम ह्या लेखात ईश्वराच्या व्याप्तीचे वर्णन केले आहे. चराचरात ईश्वर व्यापला असल्यामूळे सार्या चल-अचल वस्तूत ईश्वर आहे हे ओघाने आलेच.  ईश्वर दिसत नसला तरी तो आपल्याला चल अचल वस्तूत आहे असे जाणवते. ईश्वराचे आणखिन एक अदभूत  वैशिष्ट्य असे आहे की त्याने आपले भावविश्वही  व्यापले आहे. म्हणून तो करूणासागर आहे ; भक्तवत्सल आहे; तो सगुण आहे तसेच निर्गुण आहे;  तो पतीत पावन आहे;  तो सत् चीत आनंद आहे  असे त्याचे वर्णन कवी, लेखक गीतकार, संतानी आपआपल्या साहित्यकृतीतून केले आहे. त्यांच्या साहित्यकृत्या म्हणजे देवाच्या स्वरूपाची त्यांना झालेली अनुभूती. असा आपला  विश्वास आहे. ह्याच विश्वासाचं हळूहळू श्रध्देत रूपातंर होत गेलं. हे सुध्दा नैसर्गीक आहे. शेवटी जगाचा कारभार श्रध्देवरच  चालतो ना ! आपली दिनचर्या, आपले आचार-विचार, आहार-विहार,  बोलणं-वागणं, इत्यादीवर कोणीतरी  पाळत ठेवीत आहे, आणि ती शक्ती म्हणजे देव आहे असे आपण मानतो. त्यामुळे पापकर्म करण्याचा मोह टळला जातो. अनायसे आपल्यात विविध गुणांची जोपासना होत असते. आपल्या अंतःकरणात विभिन्न गुणांची जोपासना होण्याची जी प्रक्रीया घडत असते तिचेच नाव देवाची अनुभूती असावी. शेवटी चांगले कार्य ते देव. चांगले बोलणे ते देव, चांगणे ऐकणे ते देव. चांगले देणे- घेणे ते देव. चांगल्या प्रकारे उपयोगी पडता येणे ह्या सार्या दैवी शक्ती. त्या अर्थाचं सुभाषितच आहे.
     हस्तस्य भूषणम् दानम् ! सत्यं कंठस्य भूषणम्!      
     श्रोतस्य भूषणम् शास्त्रम्! भूषणैः किम प्रयोजनम्!!  
दान, सत्याची कास, व शास्त्र श्रवण ह्या सार्या दैवी शक्ती वा दैवीसंपत् होत. सोप्या भाषेत म्हणावयाचे तर ही जीवनमूल्यें, म्हणजेच गुणांची खाण समजू या. 

अनेक गुणांची जोपासना करणे हेच मानवी जीवनाचे प्रयोजन असावे. पण ते कार्य महाकठीण असते. म्हणून आपल्या ऋषीमूनींच्या वाणीतून,
                  तमसो मा ज्योतिर्गमय 
                  असतो मा सद् गमय
                   मृत्युर्मा अमृतं गमय 
असा उपदेश सार्या मानव जातीसाठी बाहेर आला. पण ह्या लेखाचे शिर्षक मात्र मृत्युर्मा अमृतं गमय असे का ठेवले हा प्रश्न आपल्या मनात उद्भवला असणार. त्याचे कारण असे आहे की ऋषीमुनींच्या वाणीतून निघालेल्या पहील्या दोन उपदेशाचे अर्थ आपण जाणतो पण मृत्युवर अमृतसिंचन कसे होऊ शकते, ह्याबाबतचे ठोस असे उत्तर मी शोधू शकलो नाही.  मग ठरले की आपल्याशी चर्चा व संवाद करून काही उत्तर मिळते का हे पाहावे. म्हणून हा लेख प्रपंच.

देव चांगला आहे. मग आपल्यावर संकटे का येतात?   संकटे आपली परीक्षा पाहण्यासाठी येतात. हे ही क्षणभर मानले, तरी एखाद्या घरात एकूलता एक मुलगा देवाघरी का जातो? मृत्यु अटळ आहे , हे ही मानले तरी माता-पित्याच्या अगोदर मुलाला किंवा मुलीला मृत्यु का यावा? देव करूणासागर आहे, पतीतपावन आहे, मग असे का घडते ? देवाच्या दरबारात न्याय आहे की नाही ?  भुकंप, पूर, अपघात, वादळ, त्सुनामी, अशा आपत्तीत निष्पाप  माणसे आपला जीव का गमावितात? असे प्रश्न सदैव आपल्याला सतावीत असतात. अशाच प्रश्नांनी एका सिद्धार्थ नावाच्या राजकुमाराला सतावीले होते.  मृत्युचे अनाकलनीय तांडव पाहून त्याचे संसारतून मन उडते. प्रपंच सोडतो. घराबाहेर पडतो  आणि तप करतो. दिर्घ तपश्चर्या नंतर बोधी वृक्षाखाली त्याला ज्ञान प्राप्त होते. तोच राजकुमार सिध्दार्थ म्हणजे भगवान बुध्द, भगवंताचा अंहिसारूपी अवतार ! प्राणीमात्रांवर दया करावी हा सार्या मानवजातीला दिलेला त्याचा उपदेश. सर्व प्राणीमांत्रावर दया करणार्या एकनाथ महाराजांच्या चरीत्रात वाचलेल्या एका कथेची इथे  आठवण झाली . ती अशी आहे ---

एका गावात एक भांडखोर माणूस होता. तो रोज कोणाच्या तरी कामात अडथळा उत्पन्न करीत असे. सतत दुसर्याशी भांडण उरकून काढीत असे. त्याच्या भांडकुदळ स्वभावाने त्याची पत्नी व मुले कंटाळून गेली होती. सारा गाव त्याच्या स्वभावाने त्रस्त झाला होता. सार्या ग्रामस्थांनी गावाच्या पंचाकडे काही तरी ह्यावर उपाय शोधावा अशी विनंती केली. पंचांनी एक ग्रामसभा आयोजित केली व सर्वानुमतें त्या भांडखोर माणसावर बहिष्कार टाकावा असा ठराव पास केला. दुसर्या दिवसापासून तो रस्त्यात भेटला की गावकरी मंडळी आपली मान फिरवू लागली. त्या भांडखोर माणसावर त्याच्या पत्नीने व मुलांनीही अबोला धरला. महीना उलटला. त्याला आता एकाकीपणाचा कंटाळा येऊ लागला. आपणच आपल्या पायावर धोंडा मारून घेतला हे त्यास उमजू लागले. पंचाकडे जाऊन त्याने माफी मागितली. पण काही उपयोग झाला नाही. शेवटी तो संत एकनाथ महाराजाकडे गेला. त्याने  आपली व्यथा सांगितली. एकनाथ महाराज म्हणाले, " ठीक आहे,  तुझ्या उजव्या हाताचा तळवा बघू या."  त्याने उजवा हात पुढे केला. त्याच्या उजव्या हाताचा तळवा न्याहाळून एकनाथ महाराज म्हणाले, " मित्रा, तुझा मृत्यु जवळ आला आहे. पुढल्या सोमवारी रात्री बारा वाजता तुझा मृत्यू होणार आहे." तो भांडखोर माणूस घाबरून गेला, आणि काकळूतेने म्हणाला, "महाराज, काही तरी करून मला मृत्युपासून वाचवा." एकनाथ महाराज म्हणाले,"ह्यावर माझ्याकडे काही उपाय नाही. पण एक आठवड्याचा अवधी तुझ्यापाशी आहे. तु सर्वांशी प्रेमाने वाग. लोकांनी तुझ्याशी अबोला धरला आहे. ते तुझ्याशी बोलणार नाहीत. म्हणून  तु कोणाशी बोलण्याचा प्रयत्न करू नकोस. मी तुझ्या मृत्युसंबंधी सांगितलेले भाकीत कोणालाही सांगू नकोस. अगदी तुझ्या पत्नीला व मुलांनाही तुझ्या मृत्युचे भाकीत सांगू नकोस. न बोलता सकाळी लवकर ऊठून घरातील छोटी-मोठी दैनंदिन कामें करीत जा. रस्त्यावर लोकांना ओझे उचलावयास मदत करीत जा. कोणा बाईच्या एका कड्यावर बाळ आहे, व दुसर्या हातात सामानाची पिशवी असेल तर ती पिशवी हातात घेऊन तिच्या घरापर्यंत जा. रस्त्यावरून वृध्द व्यक्ती कोणी दिसली तर तिचा हात धरून चालण्यासाठी आधार देत जा.  सात दिवसात घरातील मंडळी व गावकर्यांना जितकी मदत करता येईल, तितकी मदत कर. बाकी सारे देवाच्या हातात आहे,  म्हणून सतत रामनाम मुखी असू दे. मी तुला सांगितलेले भाकीत कोणालाही सांगू नकोस. फक्त मी म्हटले आहे तसे वागत जा." एकनाथ महाराजांचा सल्ला त्याने मनापासून पाळायला सुरूवात केली. लोकांना आश्चर्य वाटले. लोकांना माहीत पडले कि तो एकनाथ महाराजांना शरण गेला होता. पण लोकांनी त्याच्यावर बहिष्कार टाकला होता, तो सुरूच ठेवला. कारण तो पंचाचा निर्णय होता. मरणाच्या भितीने त्याला ग्रासले होते. पुन्हा गुरूवारी सकाळी तो एकनाथ महाराजाकडे गेला. एकनाथ महाराजाने काही दाद दिली नाही. फक्त दिलेल्या सल्ल्याने वागत जा असे सांगितले.  दुसरा सोमवार उजाडला. त्याला मृत्युची भिती वाटू लागली. सकाळी दहा वाजता तो एकनाथ महाराजांना भेटावयास गेला. एकनाथ महारांजानी फक्त इतकेच सांगितले, की " आज शेवटचा दिवस आहे, लोकांच्या कामात मदत सुरू ठेव, रात्री पावणे बारा वाजता मला भेटावयास ये. ते ही गुप्तरित्या. तो पर्यंत मला भेटायला येऊ नकोस, मी सांगितलेले भाकीत कोणालाही सांगू नकोस. मुखी रामनामाचा जप सुरू ठेव . आता निघ." तो इसम आपल्या घरी परतला. प्रत्येक मिनिटाला त्याच्या छातीतली धडधड वाढू लागली.  रात्रीचे अकरा वाजले. त्याला रहवेना. एकनाथ महाराजांच्या घरी जाण्यासाठी निघाला. दहा मिनिटात नाथमहाराजांच्या घरी तो पोहचला. महाराजांच्या चरणी लोटांगण घालीत रडू लागला. महाराजांनी त्याला धीर देत उठविले व म्हणाले बघ बाराचा ठोका झालेला नाही. तु लौकर आला आहेस, पण हरकत नाही. इथेच माझ्या घरी बारा वाजेपर्यंत रामनामाचा जप चालू ठेव. त्याने नाथांचे म्हणणे ऐकले. व तिथेच बसून रामनामाचा जप पुन्हा  सुरू केला. नाथांच्या घरातील भिंतीवरील मोठ्या घडाळ्यात बाराचे ठोके वाजले. एकनाथ महाराज, त्याला म्हणाले, मित्रा, उठ. तुझे मरण टळले आहे."  एकनाथ महारांजाची इतकी मोठी कृपा पाहून तो पुन्हा पुन्हा त्यांच्या पाया पडू लागला. नाथमहाराजांनी त्याला मिठीत घेऊन कुरवाळले आणि त्याला म्हणाले, मित्रा, मला ज्योतिष विषयातले काही कळत नाही. मी मुद्दामहून तुला खोटे भविष्य सांगितले." तरीही त्याला ते पटेना. तेव्हा नाथ महाराज म्हणाले, मित्रा, आम्हाला आमचे मरण कधी येणार हे कळत नाही, तर आम्ही दुसर्यांच्या मरणाचे भाकीत कसे सांगणार ? " त्यावर त्याने विचारले, महाराज , मग तुम्ही इतके संयमी आणि शालीनतेने कसे सर्वांशी वागता ? एकनाथ महाराज म्हणाले, " मित्रा, मृत्यु हेच जीवनातले अंतिम सत्य आहे, मानवाचा जन्म मिळणे ही आपल्या भाग्याची गोष्ट आहे. कधीतरी आपल्याला मरण येणार आहे, हे सतत ध्यानात ठेवावे, मग आपोआप आपण सर्वांशी प्रेमाने वागू लागतो." एकनाथ महाराजांचा उपदेश ऐकून त्या इसमाचे समाधान झाले. मग पुन्हा एकनाथ महाराजांचे चरण स्पर्श करून त्याने आपल्या घराची वाट धरली. 

मृत्यु हे जीवनातलं अंतिम सत्य. कोणा माता-पित्याला आपला पुत्र वा कन्या गमाविण्याचा शोक वाट्याला येतो, तर कोणाला आपल्या कोवळ्या वयातच आईच्या मायेला व वडीलांच्या छत्राला मुकावे लागते. जीवन हे सुखःदुखाने भरलेले असते. त्यावर शोक करू नका असेच भगवान श्रीकृष्णाने म्हटले आहे.  आपल्याला जी काही संकटे येतात ती आपल्या संचीत कर्माची फलं असतात. हाच नियम भंगवंतांनी गीतेत विस्ताराने समजावून दिले आहे. त्यामूळे ' जसे आपण जीवन जगाल तसाच मृत्यु आपल्या वाट्याला येत असतो ' ह्या विचारपाशी आपली बुद्धी थांबते. त्यातून आपण म्हणतो, ' मृत्यला ना क्रम असतो. ना कोणाच्या शोकाचं व भावनांचं सोयर-सुतक. मृत्युला ह्या भूतलावरील मानवाने बनविलेल्या नियमांचे बंधनही नसते. आपण कोठे, केव्हा, कोणाच्या पोटी जन्म घ्यावा हे आपल्या हातात नसते. आपण केव्हा, कोठे आणि कसे मृत्युच्या विळख्यात सापडणार हे ही सांगता येत नाही.'  ह्या संबंधी पुराणात एक कथा आहे, ती अशी आहे, 

महर्षी व्यासांच्या एका सर्वोत्तम व आवडत्या शिष्याचे मरण जवळ आले होते. व्यासमुनींना त्या शिष्याचे मरण पुढे ढकलावयाचे होते. म्हणून ते आपल्या शिष्याला घेऊन ब्रह्मदेवाकडे जातात. ब्रह्मदेवाने म्हटले, " माझं कार्य जन्म देणे आहे. तुम्ही ह्यासाठी महादेवाकडे जा." मग ते महादेवाकडे जातात. त्यांनीही ह्याबात मी काही मदत करू शकणार नाही, तुम्ही नारारणा कडे जावे, असे सांगितले. व्यासमुनींचा पारा चढला. ते रागाने बेभान होतात आणि तसेच तडक भगवान विष्णूकडे जातात. वैकुंठाच्या पायर्या चढत असताना आठव्या पायरीवर व्यासांच्या त्या शिष्याला ठेच लागते आणि लागलीच त्याचा प्राण जातो. त्याचवेळी तिथे भगवान श्रीविष्णू अवतारतात. व्यासमुनींनी रागातच भगवान विष्णूला विचारतात "का माझ्या सर्वोत्तम शिष्याचे प्राण घेतले? " भगवान विष्णू  व्यासमुनींना म्हणाले " मुनिवर्य तुम्ही राग आवरा." मग चित्रगुप्ताला बोलावितात. चित्रगुप्त मृत्युची नोंदवही घेऊन येतात. व्यासमूनींना त्यांच्या शिष्याच्या मृत्यूची नोंद दाखविली. त्यात व्यासमूनींच्या शिष्याचे नाव, त्याच्या मरणाची तारीख व वेळ तसेच मृत्युचे स्थान (वैंकुठाच्या आठव्या पायरीवर) दाखविले. ते तंतोतंत अचूक दिसले. व्यासमुनींचा राग आटला. भगवान विष्णू म्हणाले, " मुनिवर्य आम्ही देव जरी असलो तरी आम्ही काळ नावाच्या देवतेशी बांधील असतो." त्या देवतेचं आपल्या अध्यात्मात नाव आहे यमराज ,तोच काळ, तोच महाकाळ, तोच शिव. म्हणजे  ब्रह्मा विष्णु महेश मधील 'महेश' म्हणजेच महादेव. जन्म देतो तो ब्रह्म, पालन करतो तो विष्णू आणि नाश करतो तो महेश. इंग्रजीत The God असे म्हटले जाते. G for Ganerator, O for Observance, and D for Destruction. आपली संस्कृती म्हणते,  शेवटी जीव शिवाच्या भेटीला जातो. तेच ते अनंतात विलीन होणे होय. 

इतकं सारं समजले तरी ' मृत्योर्मा अमृतं गमय ' चा अर्थ काय लावावा ? ' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' ह्याचा अर्थ मनाला पटतो. अंधकार, अज्ञान दूर होवो व सर्वत्र प्रकाशाचे राज्य असावे. म्हणजेच ज्ञानाची कास धरणे. त्याला जीवनात पर्याय नसतो हे उघड आहे. तसेच तेज म्हणजे सूर्य, व सूर्य प्रकाशात जीवाचे रोपण होते व चंद्राच्या शीतल छायेत त्याचे पोषण होते हे सुद्धा आपल्याला उपनिषदकारांनी पटवून दिले आहे.'असतो मा सद्गमय ' ह्याचाही अर्थ मनाला पटतो. वाईट, खोटे सारे नष्ट होवो, व चांगले ते घ्यावे, व्हावे, टिकावे. आता आपल्या पुढे एक कार्य उरते ते म्हणजे  ऋषीमुनींच्या वाणीतील  ' मृत्योर्मा अमृतं गमय ' ह्या प्रश्नांचे उत्तर शोधण्याचे. हे कार्य कसे पार पाडावयाचे? जगात व्यापलेल्या मृत्युच्या तांडवावर अमृत सिंचन करणे ही सोपी गोष्ट थोडीच आहे. मागे मी  कोजागिरी पौर्णीमेवर एक लेख लिहीला आहे. त्यात कोजागिरी पौर्णीमेला जो जागरण करेल त्याच्या घरी लक्ष्मी येते अशी कल्पना का मांडली गेली असावी ह्यावर सविस्तर लिहीले आहे. तिथे मी म्हटले आहे की कोजागिरी पौर्णीमेला लक्ष्मी मिळेल इतकेच ऋषीमुनींने सागितले आहे. लक्ष्मी प्राप्त कशी करावी हे आपल्यावर सोपविले असावे असा तर्क काढून ' को जागर्ती ' (जागरण)  ह्या शब्दाचा अर्थ माझ्या बुद्धीच्या कुवतीनूसार दिला आहे. आज इथे ' मृत्युर्मा अमृत गमय ' ह्या संबंधीचा अर्थ काढण्याचे कार्य ऋषीमूनींनी आपल्यावरच सोपविले असे मी गृहीत धरून माझ्या बुद्धीच्या कुवतीनुसार त्याचा अर्थ खाली देत आहे. अर्थात आपल्याशी ह्या चर्चेच्या माध्यमातून काढलेला हा अर्थ आहे, तो अंतिम नाही हे सांगावयाची गरज नाही. 

" मृत्यूर्मा अमृत गमय ' म्हणजे संजिवनी विद्या प्राप्त करणे नव्हे. ते कार्य कलीयुगात कोणी करू शकेल असे संभवत नाही. माझ्या गावी नालासोपारा (प) येथे संजीवनी परिवार नावाची एक संस्था आहे . अनेक लोकोपयोगी व काळाला अनुसरून समाज प्रबोधनाचे काम करते. एका अर्थाने जागरणाचे काम करते. हीच ती संजीवनी विद्या असावी. राष्ट्रीय पातळीवर आपल्या संस्कृतीतल्या जीवनमूल्यांच्या आधारावर निरपेक्ष भावनेने देशात सामाजिक समरसता आणि देशभक्तीचा अविरतपणे मळा फुलविणारी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नावाची सास्कृतिक संघटना जीवन कसे जगावे ह्या संबंधीचे एक मुर्तीमंत उदाहरण आहे.   मृत्यु नंतरचे जीवन ह्यावर अनेक पुस्तके आहेत. तसेच गरूड पुराणासारखे धर्मग्रंथ ही आहेत. मरणात खरोखर जग जगते, जन पळभर म्हणतील हाय हाय, मृत्यु इत्यादी कविताही आहेत. तो एक स्वतंत्र विषय आहे. ' मृत्यु म्हणजे संपल की  पुढे जीवन आहे? आणि असल्यास तो परलोकातील प्रवास आहे का? प्रवास असल्यास नरक-स्वर्ग असे टप्पे असतात का? त्यातून पुन्हा इहलोकात येणे असते का आणि असल्यास कुठल्या रूपात इत्यादी मुद्याच्या अनुषंगाने पुढे कधीतरी स्वतंत्र पणे चर्चा करता येईल.' मृत्यूर्मा अमृत गमय ' ह्याचा गर्भीत अर्थ समर्थ रामदास स्वामींच्या ' मरावे परि किर्ती रूपाने उरावे ' ह्या उपदेशाशी साधर्म्य दाखवित आहे, असे मला वाटते. किर्ती सहज मिळणारी वस्तू नाही. ती मिळविण्यासाठी चांगली लोकोपयोगी कामे करणे गरजेचे असते. परंतु किर्तीच्या पाठीमागे लागून लोकोपयोगी कामें करणे ही बाब जीवनमूल्य म्हणून समजले जात नाही. म्हणजे निरपेक्ष भावनेने सत्कार्य करीत राहून किर्ती रूपाने उरावे हाच उपदेश समर्थ रामदासांना अभिप्रेत आहे. त्यासाठी चांगल्या गुणाची जोपासना करणे ओघाने आलेच आणि हे तर पहील्या दोन पंक्तीत ऋषीमूनींनी दिलेले आहे. ज्ञानाची उपासना, व सदाचाराचा अंगिकार ह्या बाबी प्रत्येक जीवनमूल्यांच्या कसोटी आहेत. तेथूनच मानव देवत्वपदाच्या शिडीवर चढू लागतो. त्या शिडीवरून कुठपर्यंत चढल्यावर देवत्वपद प्राप्त होते ह्याचा निकष समाज ठरवित असतो. ज्याला आपण  दैवी शक्ती वा दैवीसंपत् म्हणतो त्या एका परीने आपल्या संस्कृतीत वर्णिलेले अनेक जीवनमूल्यें होत. जीवनमुल्यें वा गुण त्यांचा ही एक धर्म असतो, म्हणून गुणधर्म हा शब्द भाषेत आला असावा. आपल्यात गुणांची जाणीवपुर्वक जोपासना करणे वा जीवनमुल्यांचा अंगिकार करून तेच आपल्या जीवनाचे ध्येय मानणे, ह्याचाच अर्थ सार्या जगावर अमृतसिंचन करणे होय. हेच ॠषीमुनींना सुचवयाचे आहे असे मला वाटते. ही जीवनमूल्यें म्हणजे एक प्रकारे आपली दैवते आहेत. ह्या गुणांची, ह्या दैवतांची ज्या महापुरूषांनी पूजा केली ती सारी मंडळी देवत्वपदास पोहचली. हा मानवाचा इतिहास व अनुभव आहे. त्यामूळे आपली दैवते जशी गहन तशी संख्येनेही अगणित आहेत. ह्याच  आधारावर आपली ही लेख मालिका पुढे सरकत जाईल अशी आशा बाळगतो."

दिल्ली राज्य निवडणूक निकाल--केजरीवाल नावाचं काटेरी झुडपं भस्मसात ? (भाग -१)

गेल्या शनिवारी म्हणजे ८ फेब्रुवारी २०२५ या दिवशी दिल्ली विधानसभा निवडणूकांचा निकाल लागला. बहुतांश न्यूज चॅनेल्सनी मांडलेले भाकीत खरे ठरले. भ...