सोमवार, १२ नोव्हेंबर, २०१८

अस्पृशता एक बडी भूल



दसवी शताब्दीमे हमारे देशमे रामानुजाचार्य नामके एक महापुरूष हुये थे | वह विशिष्टाद्वैत मतके प्रतिपादन करनेवाले वैष्णव आचार्य थे | उनका प्रतिपादन था कि जीव और जगत ब्रह्मके ही चेतन और अचेतन अंश है | उनकी 29 आक्टोबरको जंयती थी | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघके सभी शाखाओंपर रामानुजाचार्यके प्रती आदरांजली प्रगटके कार्यक्रम हुये | उस कार्यक्रमे रामानुजाचार्यके चरीत्रमेसे एक कथा सुनाई गयी थी उससे मै बहुत प्रभावित हुआ और यह लेख लिखनेकी मुझे प्रेरणा मिली | मै वह कथा आपके सामने पेश करता हू , बादमे अस्पृशता विषयपर चर्चा छुरू करेंगे | 
    
वृध्दावस्थामे रामानुजाचार्य प्रतिदिन नदीपर स्नान करने जाया करते थे | वे स्नान करने आते समय एक ब्राह्मणके कंधके सहारा लेकर आया करते और लौटते समय एक शुद्रके कंधेका सहारा लेते | वृद्धावस्थाके कारन उन्हे किसीकी सहारेकी आवश्यकता है, यह बात तो सभी समझते थे किंतू स्नान करने आते समय ब्राह्मण और लौटते समय शुद्रका सहारा, यह बात  सबकी समझ से परे थी | उनसे इस विषयमें प्रश्न करनेका साहस किसी भी के पास नही था | सभी आपसमे चर्चा करते कि वृद्धावास्थामे रामानुजाचार्यकी बुद्धी भ्रष्ट हो गयी है | नदी स्नान करके शुद्ध हो जानेके बाद अपवित्र शुद्रको छूनेसे स्नानका महत्त्व ही भला क्या रह जाता है? शुद्रका सहारा लेकर आये और स्नानके बाद ब्राह्मणका सहारा लेकर जायें तो भी बात समझमे आती है | एक दिन एक पंडीतसे रहा नही गया, उसने रामानुजाचार्यको पुछा ही लिया | " प्रभू आप स्नान करने आते हो तो ब्राह्मणका सहारा लेते हो किन्तु स्नान करके लौटते समय आप शुद्रका सहारा लेते हो | क्या यह धर्म शास्त्रोंके  विपरित नही है ?"  यह सुनकर आचार्य बोले, " मै शरीर और मनका दोनोंका सहारा लेता हू | ब्राह्मणका सहारा लेकर आता हू और शरीरका स्नान करता हू | किन्तु तब मनका स्नान होता नही, क्योंकी ब्राह्मण के मनमे बैठा हुआ वह उच्चता का भाव पानीसे नही मिटता है | वह तो शुद्रका सहारा लेकर ही मिटता है और मेरा अहंकार धुल जाता है, और सच्चे धर्मकी पालनकी अनुभूती होती है | 

देशके सभी संतोंके चरीत्रसे ऐसी कथायें हमने पढी  और सुनी भी है | जब मैने यह कथा पढी, तब मुझे महाराष्ट्रके संत तुकाराम महाराजका एक अंभग याद आया जिसमे कौन व्यक्ती वंदनिय होती है ? इसका जबाब सिर्फ दो पंकत्तीयोंमे 
है | वह इस प्रकार है,
                     बोले तैसा चाले |
                     त्याची वंदावी पाऊले ||
अपने सभी महापुरूष तथा संतजन हमे वंदनीय है , इसका कारन उनके कहनी और करनी में अंतर नही था | सभी महापुरूषोंने समाजमे सालोंसे चलती आयी अस्पृशता प्रथाको गैर बताया, और नष्ट करनेके लिये सिर्फ मार्गदर्शनही नही किया बल्की जो सलाह लोगोकों उन्होंने दि उसे स्वयं अपने कृती और व्यवहारमे उतारकर अपने सामने एक उदाहरण पेश किया | 

सामाजिक व्यवस्थामें कर्मकी अभिरूची याॅ गुणवत्तानुसार व्यक्ती-व्यक्तीमें  विविधता और भिन्नता होती है | लेकीन इसका अर्थ यह नही की समाजमें कोई लोग ही योग्य होते है, और दुसरे लोग अयोग्य और  अछूत होते है | हमारी संस्कृती कहती है " अयोग्यः पुरूषा नास्ती नास्ती योजकस्तत्र दुर्लभः|"  अपने हृदयसे निकली रोहीणी नामकी धमनी (रक्तवाहीनी) जिस तरह शुद्ध रक्तका वितरण सभी इन्द्रयोंको समान रूपसे करती है, उसमे भेदभाव नही रखती है, उसी तरह  हमें  समाजके हर वर्गोको समान रूपसे देखना चाहीये | सभीका इस समाजमे योग्य स्थान है | समाजके अस्तित्व, सार्वजनिक जीवन व्यवस्था और व्यवहार तथा समाजकी  उन्नतीमे सबका योगदान होता है | मै आपके सामने एक उदाहरण रखता हू | समझ लो मै एक चावलका व्यापारी हू | इसिलीये समाजके सभी लोग चावल खरीदने लिये मेरे पास आते है | मै थोडा किसीको जातके आधारपर चावल बेचना मना करता हू ?  क्यों की चावल बेचनेसे मेरा उदरनिर्वाह होता है | वही मेरा कर्म है; वही मेरा धंदा है; वही मेरा धर्म है | मेरे दुकानमे चावल कहाॅसे आता है ? किसान अपने खेतोमें कडी मेहनतसे चावल उगाता है | पर वह अकेलेके दमपर चावल उगाता नही , यह तो बात साफ है | किसान किसी मजदूरोंको रोजगार देकर उनकी  मदद लेता है | बादमे किसान चावलकी फसाईको सफाई करता है| उसमे भी वह मजदूर तथा सफाईवालोंकी मदद लेता है | उसके बाद मशीनसे चावलके उपरके छिलके निकालकर चावलको खानेलायक बनाता है | वही छिलके पालतु पशुऔ जैसे की गाय, भ्हैस इनका अन्न है, उसे ऐसे जगह रखता है जहाॅ धूप तथा बारीससे बचाव हो | यह कामके लिये किसानको सफाई मजदूरोंकी मदद लेनी पडती है | बादमे किसान किसी दलालको याॅ दुकानदारको सफाई हुआ चावल बेचता है | दुकानदरके पास याने मेरे पास वही चावल टेम्पोसे आता है | इसका अर्थ समाजमे ट्रान्सपोर्टका धंदा करनेवाला भी कोई होता है | अब बताओ,  चावलकी फसाईसे  लेकर चावल मेरे पास आनेतक जिनकी मेहनत लगी है उनका काम महत्वपुर्ण है या नही? वह सब अपने समाजके ही लोग है ना | तो उनमेसे मजदूर याॅ सफाई करनेवालेको हम क्यों अछूत माने? स्वच्छताका नाम ही तो ईश्वर है | चावल उगाते समयसे दुकानदारको बेचनेतक कचरा तो होता है उसे महानगर पालिका तथा ग्राम पंचायतके सफाई कर्मचारी उठाते है और यदी वह काम एक दिन भी रूका हुआ तो भी सर्वत्र बिमारी फैल जाती है | अपने शरीरमे सभी वर्ण है | कोई इंद्रिये ज्ञानार्जन करते है, तो कोई इंद्रिय देहमे सफाई करता है | हमारे ज्ञानेंद्रियेको(आॅखें,  नाक, कान, कांती, दिमाग)  देहका ब्राह्मण माना जाता है, तो अपना उदर( पोट) वैश्य वर्ग है | हात क्षत्रिय है इससे हम अन्न (जिससे शक्ती प्राप्त होती है) खाते है और वही हाथसे हम अपनी रक्षा भी करते है | खाया हुआ अन्नसे रक्त तैयार होता है और वह रक्त शरीरके हर इंद्रीयके पास जाता है | इसका मतलब शरीरमे भी ट्रान्सपोर्टकी व्यवस्था है | न हजम हुआ अन्न, मल-मुत्र रूपसे बाहर फेकनेकी व्यवस्था अपने शरीरमे विद्यमान है | वह व्यवस्था संभालनेवाले इंद्रिये भी महत्वपुर्ण होते है | वैसे ही समाजका हर वर्ण, हर व्यक्ती महत्वपूर्ण होती है | हमारे शरीर की यंत्रणामे उच्च-नीचकी भावना नही है, तो समाजमे हम उच्च-नीच की भावना रखना अनुउचीत है ना ! शरीरके मल-मुत्र विसर्जन करने वाले इंद्रियोंमे बाधा उत्पन्न हुई तो पुरे शरीर बाधाओंके लपेटमे आनेकी संभावना होती है | उसी तरह समाजमे कोई वर्ग अछूत माना गया, तो समाज व्यवस्था ना कभी स्थिर होगी, ना वह विकासकी गती प्राप्त  कर सकेगी | समाजमे जाती व्यवस्था और आपसमे भेद यही एक मूल कारन है जिसके वजहसे  हमारा देश, समाज विदेशी आक्रमकोंके सामने पराजित हुआ | वही विदेशी ताकदोंने एक हजार सालसे अधिक काल अपने देशपर राज करके संपत्ती तथा संस्कृतीका भारी मात्रामें नुकसान किया |

सच देखा जाये तो जब मै मेरे परिवारके बिमार सदस्यकी सेवा करता हू, तो मै सालोसे चलती हुई प्रथासे मै भी शुद्र हू | पर मुझे अछूत नही माना जाता है, और सार्वजनिक जगहोंको सापसुत्रा रखनेवाले सफाई कर्मचारीको अछूत समझें, यह ना इन्साफी है | क्योंकी हमारी धर्म की मान्यताओंके मुताबिक सेवा भी  एक धर्म है,  तो धर्मकृत्य  भला हीन  कैसे हो सकता है? हरेक व्यक्ती के भीतर  ज्ञान, शौर्य, व्यापार, सेवा इस तरहकी चार तत्वे विराजमान रहती  है | जब  मै मेरे बच्चोंकी पढाई लेता हू, उनके पढईमे मदद करता हू तब मै ब्राह्मण बनता हू | यदी मै मेरे बच्चोंकी पढाई नही लेता हू , मै ज्ञानसाधना नही करता हू तो  किस आधारपर मुझे ब्राह्मीन कहलाया जा सकता है? सिर्फ जन्म ब्राह्मीन घरमे हुआ इसिलीये? यह बात अतार्किक है | जबकी ब्राह्मीन का अर्थ है जो ज्ञान-जिज्ञासाका प्यासा हो और जिसका आचार-विचार सात्विक हो | समझ लो मै ज्ञानकी साधना करता हू ,पर किसी समारोहमे लोगोंसे अपना परिचय करते वक्त ' मै शुद्र नही ' यह भावना मनमे रहेगी तो भी मै ब्राह्मीन होनेसे वच्छींत रहूंगा | यही तो रामानुजाचार्यका हमे संदेश है | उन्होंने स्नान करनेके बाद शुद्रका सहारा लिया इसका कारन उनकी ज्ञान तपस्या चौबीस कॅरेट सोने जैसी शुद्ध थी,  और जिस ब्राह्मीन के कंधेका सहारा लेकर गुरूदेव रामानुजाचार्य नदीस्नान करने आते थे उन्हे ब्राह्मीन होनेका गर्व था | वैसेही जिसे हम अस्पृश्य मानते वह अपने बच्चोंकी पढाई  लेते है, ज्ञानकी साधना करते है, तो केवल शुद्रमे जन्म लिया, इसिलीये हम उसे अछूत समझना, यह सृष्टीके नियमोके विपरित है | मुझे लगता है की छुत-अछूतकी कल्पना अपने समाज व्यवस्थामे गलत ढंगसे आ गयी है जबकी सत्य यह है की समाजमे कोई उच्च-नीच नही है |

भगवान श्रीकृष्णने गीता मे कहा है, 
             चातुर्वण्यम् मया सृष्टी गुणकर्मविभागशः |
                                 
(इस सिद्धांतको  विस्तारसे जाननेके लिये ' चातुर्वण्यम् मया सृष्टी गुणकर्मविभाशः|' इस शिर्षकका लेख इसी ब्लाॅगपर  इसी सालके 4 फेब्रुअरीको पब्लीश किया हुआ है | कृपया उसे पढीये | यह लेख मराठी भाषामे है, आप अपने मोबाईलके अॅपके सुविधासे अपने मातृभाषामें पढ सकते है)

अपनी सृष्टी विविधताकी सम्राज्ञी है, मानव समाज उसी सृष्टीका एक हिस्सा है | निसर्गमे नागफनीके संग अप्रतिम सुवास लेकर  मोगरा खिल जाता है, कणेरी के साथ  आकर्षक गुलाबका फूल खिलता है , तो हम एक दुसरेको सद्भावसे, समानताके दृष्टीसे क्यो न देख पाते है? निसर्गमे पशूपंछी, वनस्पतीयाॅ और मानवजातीमे एकही चेतना स्वरूप ईश्वर निवास करता है, फिर भी हम क्यो आपसमे उच्चनीच का भेद रखते है?  वैसे तो इस तरहका भेद सिर्फ हमारे देशमे है, ऐसा नही है | दुनियाके सभी देशमे, सभी मानव समाजमे कुछ ना कुछ तरहके भेद चलते आ रहे है |  पंधरह साल पहले दरबान शहरमे वंशभेदको नष्ट करने हेतू आतंरराष्ट्रीय संमेलन हुआ था, उस संमेलनको अल्प प्रतिसाद मिला और संमलेनभी बिना कुछ खास यश मिले खत्म हुआ | पर इससे हमे अपने देशमे चलती आयी अस्पृशता प्रथा जारी रखनेका कोई परवाना मिला है,  इस समझमे  रहना उचीत नही है |

जैसे सृष्टीमे विविधता, वैसी ही समाजमे विविधता है | पर सभीके भीतर विराजमान चेतनास्वरूप परमात्मा एक है , और वही हरेक व्यक्तीमे स्थित है, उसीको तो प्राण या आत्मा कहा जाता है | लेकीन सृष्टीकी इस  विविधता देखनेकी क्षमता हम जैसे जनसामान्यांओंमे नही रहती है | इसिलियै हम सामान्यजन है | जिन्होने इस सृष्टीकी सदाबहार  विविधताको अच्छे ढंगसे, पवित्र मनसे देखा और उसी तरह अपने जीवनको सजाया, और सजाते सजाते उन्हे व्यक्ती और समष्टीमे समाही हुई चेतनाका  दर्शन हुआ, वह सब महामानव है | वही महामानव, संतजनोंने उच्च-नीचकी प्रथाको गलत माना | और अपनी पुरी जिंदगी अस्पृशताके निवारणमे लगाई | हम सब भाग्यवान है की हमारी भूमी संत-महंतकी है, और  समय समय पर ऐसी विभूती जन्म लेते रहे और लेते रहेंगे |

हमारे देशके मानबिंदु मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री रामके चरित्रसे  इस संदर्भमे वही संदेश मिलता है जो रामानुचार्य जैसे गुरूदेव और संतोने दिया है | राज्याभिषेकका समारोह होने जा रहा है और आज्ञा आती है, कपडे उतारो, वल्कले पहनो और निकलो वनवासको | कितना साल? चौदा साल |  ना वनवास जानेका दुख , ना सिंहासनकी गद्दी हाथोसे छुट गयी उसका दुःख |  सुख और दुःख के प्रती समभाव, और असामान्य धैर्य यह प्रभू रामके जीवनचरीत्रकी विशेषता थी | अयोध्यासे निकले, तब वे दशरथ राजाके सुपुत्र थे | चौदा सालके बाद अयोध्या वापस आये, मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम बनके | अनेक राक्षसोंको पराजीत किया,वालीका दशहतवाद खत्म किया | महान पराक्रमी शक्तीशाली रावण को पराजीत किया | सत्यवचन एकवचन, एकपत्नीत्व, पतीधर्म, पुत्रधर्म ऐसी बहुत गुणोविशेषतायें राममे थी, जिससे उन्हे मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान यह उपाधी प्राप्त हुई | आजके इस विषयपर चर्चा करते समय, वनवासी रामका एक अतुल्य संदेश मेरे कानोंमे गुंज रहा है | पत्नीका हरण हुआ तब पंचवटीसे नजदीक रहनेवाले अपने नाना और मामाकी सहाय्यता राम ले सकते थे | ईश्वाकू खानदानका युवराज,  श्रीरामको किसी भी राजासे सेना मिल जाती  और उस सेनाके ताकदपर रावणको पराजीत करके सीताको छुडवाकर आ सकते थे | पर वैसा विचारही नही आया मनमे | समाजके शोषीत, वंच्छीत, लोगोको इक्कठा करके सेना बनाई;  उनकी जात नही देखी | उनके साथ खाना खाया, युद्धकी नितीयाॅ रची, ना जातका विचार, ना पातका; हम सब भारतमाताके पुत्र; हम सब भाई भाई; ना कोई अछूत, ना कोई ज्ञानी, सब समान यही भावना मनमे  थी | इससे ही युवराज राम भगवान राम बने | ' समाजमे कोई अछूत नही है ' यही संदेश हमे त्रेता युगसे हमे मिला | 

यही संदेश हमे द्वापार युगसे भी मिला | एक सामान्य गुराखी, बचपनमे  छोटे छोटे मित्रको जोडता है; मख्खन चोरता है ,सब मित्रोंका बाटता है, किसी मित्रकी ना जात मालूम, ना खानदानका पता; खुदके घरमे तो मख्खन, घी की कुछ कमी नही थी | फिरभी मख्खनकी चोरी? मख्खनकी चोरी नही, बल्की  गरीब मित्रोंको मख्खन देनेकी एक व्यवस्था थी | गोपीयोंके साथ रासगर्बा खेल खेला; ना जात देखी ना खानदान;  ना राजा बननेकी लालसा, ना खानदानका दंभ; सुदामा जैसे गरीब मित्रको गले लगाया; कोई भेदभाव नही; किसीको अछूत नही माना; इंद्रकी पुजा बंद करवायी और गोवर्धनकी पुजा छुरू की | आजके मानवी जीवनके संदर्भमे  भगवान श्रीकृष्ण समाज-उध्दरक ही थे | शांती प्रस्ताव लेकर हस्तीनापुर गये, तब खाना खाया दासी पुत्र विदूरके घर; क्यों ? विदुरजी दासी पुत्र थे पर विद्वान थे, नीतीमान थे | धर्म और सत्यके पक्षमे थे | श्रीकृष्णने विदुरजींके जन्मकी कहानीपर नही बल्की विदूरजींका व्यवहार, ज्ञान, और शालीनताको महत्त्व दिया | बालक अवस्थासे जिनके पास अपरिमीत शौर्य, धैर्य, सभी विद्या-कलाकी आसक्ती, चतुराई,  ऋषीजनोंके प्रती आदर, प्रजाके प्रती प्यार और औदार्य, अन्यायको निपटनेकी शक्ती थी ऐसे श्रीकृष्णने  कंस, जरासंध, नरकासुर जैसे राजांके अत्याचारसे पिडीत सोला हजार महीलाओंको समाजमे  स्थान न मिलते देखा, तो उन्हे अपनी पत्नीयाॅ बनाकर सन्मान दिया | समाजमे अछूत रहनेकी आपत्तीसे उन्हे बचाया | आजकल महीलांओ प्रति सन्मान देनेके लिये कानून बनाये जा रहे है, वह कार्य श्रीकृष्णने द्वापार युगमे किया था | उच्च-नीच्चकी भावना या प्रथा उनके मनको स्पर्श भी न कर सकी | इसीलीये कुरूक्षेत्रसे वह गीताका ज्ञान विश्वको दे सके और जगद् गुरूके पदपर विराजमान हुये और भगवान श्रीकृष्ण बने | संदेश कौनसा था, वही 'कोई अछूत नही |'

फिर एक बार अपने शरीरकी रचना और कार्य व्यवस्था पर नजर डालके इस चर्चाको हम विराम करेंगे | अपने शरीरका कार्य भी  लोकतंत्रके मुल्योओंके आधारपर चलता है | एक इंद्रीय दुजे इंद्रीयके कार्यमे हस्तक्षेप नही करते है | इसका कारन हर एक इंद्रियका कार्य दुसरे इंद्रिय के कार्यको पुरक होता है | हर एक इंद्रिय दुसरे इंद्रियको मददके लिये तत्परता दिखाते है | आखोंसे न दिखनेवाली वस्तु स्पर्शसे मिलती है | इंद्रीयोंमे  आपसमे प्यार भी रहता है | जब पेटमे दर्द हो तो अपने दोनो हाथ पेटके उपर आते और हमे धैर्य देते है | शरीरका कोई भी हिस्सेमे गडबड हो जायेगी तो बुरा बदन दुखता है | इसका मतलब यह है की एक इंद्रीयके बीमारीपर सभी इंद्रीये संवेदनशील है | आॅखोकी तकलीफ हो याॅ कानकी, असर तो शरीरपर होता है | अशुद्ध रक्त हृदयके पास जाता है और वही शुद्ध बनके फिर सभी इंद्रियोंके पास जाता है उस क्रियाको हम रक्ताभिसरण कहतै है | वह क्रिया जिस तरह समताके तत्वसे (ना जरूरतसे ज्यादा ना जरूरतसे कम ) चलती है,  ठिक उसी तरह समाज और व्यक्तीमे विचार--भावना, आशा-आकांक्षा, सुख-दुःखका आदान-प्रदान होना चाहीये | समाजके एक वर्ग सुखी है, और बाकी वर्ग दुःखी हो तो पुरा समाज दुखी है | सभी वर्ग सुखी और एक वर्ग दुःखी है तो भी पुरा समाज दुःखी है | ऐसी भावना हर व्यक्तीके मनमे प्रस्थापित होगी, तो सामाजिक समरसताका सुंदर, निर्मल सरोवर देशके कोने कोनेमे तैयार  होगे | हम सब एक साथ ऐसे सुंदर, निर्मल सरोवरमे विहार करने जिस दिन शुरआत करेंगे,  तब हमारी भारतमाता कृतार्थ हो जायेगी | देशके हर प्रान्तमे होनेवाले त्योहारको अच्छी तरहसे समझे, तो हमें मालूम होता है की त्योहारका नाम अलग हो लेकीन त्योहारका तत्व सभी प्रान्तोमें समानही दिखता है | अभी, अभी हम सभीने दीपावलीका त्योहार मनाया | दीपावलीका त्योहार की विशेषता यह है की  जम्मु--काश्मीरसे लेकर कन्याकुमारी तक और कच्छसे लेकर  उत्तरी-पुर्व प्रान्त तक पुरे भारतवर्षमे मनाया जाता है | लोगोंने आपसमे अपनी मातृभाषा, तो कहीं राष्ट्रभाषामे  दीपावलीकी शुभकानायें शेअर की | उस सभी शुभकामनायोंकी झलक दिखानेवाली एक पोस्ट मुझे WhatsApp पर आयी है | भाषा अनेक लेकीन शुभकामनायेंकी भावना एक | इससे यह भी स्पष्ट होता है की, दीपावली सभी प्रान्तमे मनायी जाती है, और उस त्योहारका मूल हिंदु संस्कृती ही तो है | समाजके सभी बांधव, माता-भगिनी इस महान संस्कृतीके अधिकारी है | फिर हम जाती- भेद, प्रान्त-भेद लिंग-भेद क्यो करें? देशके सभी प्रान्तीय भाषामे प्रचलित मुहावरोंको हम ध्यान देकर पढे तो मालुम होता है,  सिर्फ भाषा अलग अलग, लेकीन अर्थ एक है | सभी प्रान्तके मंदिरोंमे भगवानकी मुर्तीया अलग हो, नाम भी अलग हो पर मुर्तीयोंके पिछे जो तत्व है वह भी एक है | मुर्तीयोंकी प्राणप्रतिष्ठपनाकी विधी एवं पुजा-पाठ के लिए संस्कृत भाषाकाही प्रयोग होता है , और वही पुजा-पाठ अपने अपने मातृभाषामे करेंगे तो भी हमारी संस्कृतीका दर्जा ना कम होनेवाला है ना पुजा-पाठ करनेमे मिलनेवाला आनंद कम  होगा | सबकी संस्कृती एक है, सबकी ग्रंथ संपत्ती एक है | बस आपसमे समझदारी बढायें और जो कुछ भेद सालोंसे चलते आये उसे मिटा देना है | कार्य कठीन है, पर असंभव है, ऐसा मुझे लगता नही | इस कार्यको सफलता मिलनेमे देर भी होगी, पर इसका कारन यह नही की हमारी संस्कृती  दोषपुर्ण है | जो दोष है उसे तो निकलनेका काम करना ही होगा | अपने समाजकी एक विशेषता यह है, की उसे  किसी भी व्यवस्थामे बदल क्रान्तीसे हो, यह बात पसंद नही आती है | हमारा समाज उत्कान्तीपर भरोसा रखता है | पहले जाती-जातीयोंमे संवाद बढानेका कार्य छुरू करना होगा, बादमे सहमती, उसके बाद सहकार्य जुटाना है धिरे धिरे समाजमे सद्भावका राज होगा  और अन्तिमतः हमें समाजमे सख्य, और शाश्वत ऐक्य प्राप्त करनेमे सफलता प्राप्त होगी | कालके प्रभावसे समाजमे  कुछ नयीं समस्यायें उत्पन्न होगी, तो उसे भी ठीक करते रहना है | यह एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रीया है, उसीका नाम है जिंदगी  |

समाजमे फैली हुई अस्पृशता नामकी बिमारीपर इलाजकी  शुरूआत  देशके सभी प्रान्तोंके संत-महंतो द्वारा हुई है | महात्मा गांधीजी, साने गुरूजी, पंडीत दिनदयाळ उपाध्याय, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, डाॅ बाबासाहेब आंबेडकर, नानाजी देशमुख, डाॅ बाबा आमटे आचार्य विनोबा भावे जैसे महापुरूष, सभी प्रान्तके साहित्यिक , समाजसेवक, प्रबोधनकार, एवम् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, स्वाध्याय परिवार जैसे  सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाका भी अस्पृशता कम करनेमे बडा योगदान रहा है | स्वतंत्रताके बाद सरकारके ओरसे कानून बनाये गये; अनुसूचित जाती, जनजाती और अन्य मागासवर्गीयोंकी भलाई और उन्नतीके लिये संविधानमे प्रावधान रखे गयें, जिससे देशके सभी संस्थाओमें और क्षेत्रमे उनको  प्रतिनिधित्व और रोजगारभी उपलब्ध हो गये | फिर भी समाजमें फैली हुई अस्पृशताकी बिमारीका संपुर्ण उच्चाटन क्यों नही हुआ?  इस असफलताका कारन लोगोंको जातीवादके आधारपर बाटकें  खुर्सीकी राजनीती करनेवाले नेतागण  है? और है तो,  सिर्फ नेताओंको क्यों जिम्मेदार ठराया जाता है?  उन्हीको हम ही चुनावमे जिताते है | चुनावकी प्रक्रीयामे सुधार लाना होगा | और इस कार्यमे हम बडी जिम्मेदारी क्यों नही उठा सकते है? आज सवर्ण समाज भी  देशके कोने कोनेसे आरक्षण मांग का आवाज उठा रहे है | सवर्ण समाजसे ऐसी मांग  क्यों आ रही है ? उसके पिछे राजनीती है क्या?  कहीं ऐसा तो नही की, पिछडे जाती और जनजातीके लिये संविधानमे रखे हुये प्रावधानको समयकी सीमा न रखनेसे  कहीं 'अती सर्वत्र वर्जते' ( Excess in anything is poision)  ऐसी स्थिती हो गयी है ? पिछडे जनजातीके लोगोंको क्रान्तीके नामपर समाजसे अलग होनेकी चेतावनी देनेका निरंतर प्रयास करनेवाली शक्तीयाॅ कौनसी है, उनका मकसद कहीं देशकी एकात्मताको कमजोर करनेका तो नही है? स्वतंत्रताके सत्तर सालके बाद आज भी इस सामाजिक समस्याने हमें त्रस्त करके रखा है,  यह हमारे लोकतंत्रको शोभा देता है क्या?  इस सभी बातोंपर मैने ब्लाॅगपर निम्नलिखीत लेखोंमे थोडी-बहूत चर्चा कियी है |

1)' मुक्काम पोस्ट भीमा कोरेगाव येथून '
2)' चित्रपट आणि समाजमन' और
3) 'देशभक्ती नारेबाजीत नव्हे अंतःकरणात हवी '
4) ' मिडीयातील सूत्र नावाचे अपत्य '
हालांकी यह सब लेख मराठी भाषामे है, इसिलीये  जिनकी मातृभाषा मराठी नही है ऐसे पाठककों विनंती है की वह अपने मोबाईलके अॅपसे जरीये अपने मातृभाषामे अनुवाद करके उपर बताये हुये लेख पढें | 

आज प्राथिमकता यह है की, सरकारने सभी प्रांतीय भाषाके उत्तोमत्तम साहित्यकृती, महापुरूषोओके, महायोद्धाओंके, संत-महंतओंके, और वैज्ञानिकोंके चरीत्र, उनका कार्य और उनके विचारोंकी,  किताबें और कथायें देशके सभी भाषामे अनुवादीत हो, इसिलीये एक व्यवस्था तैयार करनी होगी  और स्कूल तथा काॅलेज विद्यार्थीओंको विदेशी भाषाका सिखनेका जैसा ऑप्शन रखा जाता है, वैसे हमारे देशके प्रान्तीय भाषा(कमसे कम दो पडोसी प्रान्तीय भाषा) सिखनेको बढावा देना होगा | साथमे वैज्ञानिक दृष्टीकोनके प्रचारपर जोर लगा दिया जाय | उस कार्यमे किसी भी नागरिकके धर्म या जातीके प्रथा या प्रान्तीय अस्मिता जैसे विषयोंको राष्ट्रभावनासे अधिक महत्व देनेकी जरूरत नही है, ऐसा निग्रह सरकार तरफसे होना चाहीये | इतिहासकी कम जानकारी और सत्यताको नजरअंदाज करके, राजनैतिक फायदाके वास्ते  सार्वजनिक मालमत्ताकी तोड-फोड करनेकी वृत्तीपर लगाम लगाना होगा | दसवी कक्षाके बाद सभी राज्योंके विद्यार्थीयोंको राष्ट्रीय एकात्मता, राष्ट्रीय सुरक्षा, समाजसेवा, समाजशास्त्र  यह चार  विषयका एक सालका अभ्यासक्रम अनिवार्य करें तो, ना जातका भेद रहेगा ना धर्मका भेद ; ना गरीब-श्रीमंत भेद रहेगा ना मजदूर मालक भेद ; ना भाषाका भेद रहेगा ना प्रान्तका भेद रहेगा | उससे राष्ट्रीय एकात्मता मजबूत बनेगी और भारत एक महान शक्तीशील देश बन सकता है | हमारे समाजमे वह क्षमता है | बस समाजबांधवओंमे आपसमे समझदारी बढाना और उनकी उर्जाको सही दिशामे लानेकी जरूरत है |

       

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